अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा के शेर
एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
ग़ौर करते हैं तो उस का कोई चेहरा भी नहीं
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शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
इतनी कड़वाहट है मुँह में कैसे मीठी बात करें
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मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
देखने वालों ने देखा भी न छू कर मुझ को
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चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उसे रुला तो गया कम से कम धुआँ मेरा
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अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
तुम गए वक़्त की मानिंद गँवा दो मुझ को
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मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
कौन जंगल में उगे पेड़ को पानी देगा
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हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
तो बढ़ के ज़िंदगी ने पेश कीं बैसाखियाँ हम को
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मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
तो यूँ हँसेगा कि मुझ को उदास कर देगा
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ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
मेरी आँखों में कहीं बरसात बाक़ी रह गई
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हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
हम ही सारा जीवन तरसे प्यार की पाई पाई को
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ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
अगर मैं ज़ख़्म हूँ उस का तो भर के देखूँगी
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कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं चूक जाऊँ तो वो उँगलियाँ जला लेगा
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टैग : माज़ी
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हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में
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हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
हम को कोई क्या दे देगा क्यूँ मुँह-देखी बात करें
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जिन को दीवार-ओ-दर भी ढक न सके
इस क़दर बे-लिबास हैं कुछ लोग
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कहने वाला ख़ुद तो सर तकिए पे रख कर सो गया
मेरी बे-चारी कहानी रात भर रोती रही
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तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
पुकारता रहा इक अजनबी ज़बान में वो
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मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
इक शिकन और मिरे माथे पे बना देता है
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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
और ढूँडेगा कहीं मेरे अलावा मुझ को
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मैं रौशनी हूँ तो मेरी पहुँच कहाँ तक है
कभी चराग़ के नीचे बिखर के देखूँगी
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हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
उजाड़ी हैं तमन्नाओं की लाखों बस्तियाँ हम ने
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मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
कि जैसे और किसी दूसरे के घर में हूँ
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मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
जो मेरी गूँज का लफ़्ज़ों से तर्जुमा कर दे
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मैं भी साहिल की तरह टूट के बह जाती हूँ
जब सदा दे के बुलाता है समुंदर मुझ को
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शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
बे-ख़बर सोए हुए अपने मकानों में मिले
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हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
हम ने ख़्वाबों की मिट्टी से पाटा है इस खाई को
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अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
और नहीं कुछ तो कोई मार ही डाले मुझ को
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मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
ज़िंदगी ओढ़े हुए मैं बे-ख़बर सोती रही
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मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
ये बात ख़ुद पे मैं किस तरह आश्कार करूँ
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जाने कितने राज़ खुलें जिस दिन चेहरों की राख धुले
लेकिन साधू-संतों को दुख दे कर पाप कमाए कौन
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चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने
सवेरे तक कहीं पहुँचेंगे अब अपने बराबर हम
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उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
उस की क़िस्मत कि किसी और का वो घर निकला
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आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
कौन मेरी ही अदालत में बुलाता है मुझे
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ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
तर्जुमे उन के जहाँ भर की ज़बानों में मिले
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मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा
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मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के
जो अपनी ख़ैरियत चाहे वो बस्ती से निकल जाए
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मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
बहुत मिलता हुआ था ज़िंदगी से ज़ाइक़ा मेरा
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तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
लोग दे देते हैं टूटे हुए प्याले मुझ को
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ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
मिरा शरीक-ए-सफ़र आफ़्ताब होता है
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धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
शाम तक मैं दास्ताँ से वाक़िआ हो जाऊँगी
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उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
उम्र भर ख़ौफ़ के मारे न वो बाहर निकला
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गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मैं अब जागी हूँ जब फल खो चुके हैं ज़ाइक़ा अपना
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इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की
मेरे जिस्म में मुझ से पहले शायद कोई रहता था
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हम हैं एहसास के सैलाब-ज़दा साहिल पर
देखिए हम को कहाँ ले के किनारा जाए
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ख़्वाब दरवाज़ों से दाख़िल नहीं होते लेकिन
ये समझ कर भी वो दरवाज़ा खुला रक्खेगा
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ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
सिर्फ़ इक लम्हा बरसता रहा सावन बन के
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वक़्त हाकिम है किसी रोज़ दिला ही देगा
दिल के सैलाब-ज़दा शहर पे क़ब्ज़ा मुझ को
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मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
कि पल भर में मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई मुझ पर
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चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
हवाएँ बेचते नीलाम रंग-ओ-बू करते
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मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
उँगलियों से तिरी तस्वीर बनी पाई गई
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