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अज़ीज़ तमन्नाई

1926

अज़ीज़ तमन्नाई के शेर

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मिल ही जाएगी कभी मंज़िल-ए-मक़्सूद-ए-सहर

शर्त ये है कि सफ़र करते रहो शाम के साथ

दहर में इक तिरे सिवा क्या है

तू नहीं है तो फिर भला क्या है

ये ग़म नहीं कि मुझ को जागना पड़ा है उम्र भर

ये रंज है कि मेरे सारे ख़्वाब कोई ले गया

एक सन्नाटा था आवाज़ थी और जवाब

दिल में इतने थे सवालात कि हम सो सके

थपकियाँ देते रहे ठंडी हवा के झोंके

इस क़दर जल उठे जज़्बात कि हम सो सके

कुछ काम सकीं यहाँ बे-गुनाहियाँ

हम पर लगा हुआ था वो इल्ज़ाम उम्र-भर

बाक़ी अभी क़फ़स में है अहल-ए-क़फ़स की याद

बिखरे पड़े हैं बाल कहीं और पर कहीं

उन को है दा'वा-ए-मसीहाई

जो नहीं जानते शिफ़ा क्या है

हज़ार बार आज़मा चुका है मगर अभी आज़मा रहा है

अभी ज़माने को आदमी का नहीं है कुछ ए'तिबार शायद

वो शय कहाँ है पिन्हाँ मौज-ए-आब-ए-हैवाँ

जो वज्ह-ए-सर-ख़ुशी थी बरसों की तिश्नगी में

हमीं ने ज़ीस्त के हर रूप को सँवारा है

लुटा के रौशनी-ए-तब्अ जल्वा-गाहों में

जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए

हम जहाँ-गश्त हैं उट्ठे हैं कमर बाँधे हुए

वहीं बहार-ब-कफ़ क़ाफ़िले लपक के चले

जहाँ जहाँ तिरे नक़्श-ए-क़दम उभरते रहे

मौज-ए-ख़ुश-ख़िराम ज़रा तेज़ तेज़ चल

बनती है सत्ह-ए-आब किनारा कभी कभी

अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है

इक रौशनी-ए-सुब्ह थी वो भी उदास है

हम ने जो 'तमन्नाई' बयाबान-ए-तलब में

इक उम्र गुज़ारी है तो दो-चार बरस और

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