बिल्क़ीस ख़ान के शेर
मिरी कलाई पे बाँधी घड़ी में ठहरा है
वो एक पल जो ज़मानों में भी समाया नहीं
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समझ रही हूँ तू रस्ता बदलना चाहता है
मैं तेरे लहजे की सारी जिहात देखती हूँ
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उसी की ताल में गुम है सदी का सन्नाटा
वो एक गीत अभी तक जो गुनगुनाया नहीं
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मेरे पैरों को डसने वाला साँप
मेरी गर्दन में क्यों हमाइल है
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