बिस्मिल साबरी के शेर
निकल के आ तो गया गहरे पानियों से मगर
कई तरह के सराबों ने मुझ को घेर लिया
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वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है
अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है
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अब वादा-ए-फ़र्दा में कशिश कुछ नहीं बाक़ी
दोहराई हुई बात गुज़रती है गिराँ और
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जब आया ईद का दिन घर में बेबसी की तरह
तो मेरे फूल से बच्चों ने मुझ को घेर लिया