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बुल्ले शाह

1680 - 1757

बुल्ले शाह का परिचय

उपनाम : ''बुल्ले''

बुलहे शाह की ज़िंदगी के हालात वैसे तो तफ़सीली तौर पर कहीं नहीं मिलते और उनकी पैदाइश के सिलसिले में कोई मो          तबर हवाला नहीं मिलता। कुछ लोगों ने उनकाज़िक्रअपनी किताबों में किया है। सबसे पहले फ़ारसी नस्र की किताब “ख़ज़ीनत-उल-असफ़िया” जिसे मुफ़्ती ग़ुलाम सरवर लाहौरी ने 1864 मेंमुकम्मलक्या। ये किताब बुलहे शाह कीवफ़ातसे लग-भग 100 साल बाद की है। इसके बाद दूसरी अहम किताब ‘बाग़-ए-औलिया-ए- हिंद है। ये किताब पंजाबी शाएरी पर मौलवी मुहम्मद दीन शाहपूरी कीलिखी हुई है जिसमें बुलहे शाह केमुतअल्लिक़मालूमातदी ग

बुल्हे शाह की ज़िंदगी के हालात वैसे तो तफ़सीली तौर पर कहीं नहीं मिलते और उनकी पैदाइश के सिलसिले में कोई मोतबर हवाला नहीं मिलता। कुछ लोगों ने उनका ज़िक्र अपनी किताबों में किया है। सबसे पहले फ़ारसी नस्र की किताब “ख़ज़ीनत-उल-असफ़िया” जिसे मुफ़्ती ग़ुलाम सरवर लाहौरी ने 1864 में मुकम्मल क्या। ये किताब बुल्हे शाह की वफ़ात से लग-भग 100 साल बाद की है। इसके बाद दूसरी अहम किताब ‘बाग़-ए-औलिया-ए- हिंद है। ये किताब पंजाबी शाएरी पर मौलवी मुहम्मद दीन शाहपूरी की लिखी हुई है जिसमें बुल्हे शाह के मुतअल्लिक़ मालूमात दी गई हैं लेकिन उनकी पैदाइश का साल और पैदाइश की जगह से मुतअल्लिक़ सभी लिखने वाले ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए हैं। उनकी पैदाइश के साल और मुक़ाम के मुतअल्लिक़ सिर्फ क़यास लगाए गए हैं। ‘तारीख़-ए-नाफ़े-उस-सालेकीन के मिसन्निफ़ ने उनकी पैदाइश की जगह उच्च शहर को मानते हैं। जब कि लाजवंती राम कृष्णा ने अपनी किताब पंजाबी सूफ़ी शाएर और मियाँ मौला बख़श ‘कुश्तह ने अपनी किताब पंजाबी शाएराँ दा तज़किरा’ में बयान किया है कि बुल्हे शाह की पैदाइश क़सूरज़िला लाहौर में हुई थी।

बल्हे शाह के पैदाइश के साल के बारे में सिर्फ़ सी.एफ़. अस्बोर्न के एक किताबचा जिसका उनवान बुल्हे शाह है उसमें उनके वफ़ात का साल 1680 बयान किया गया है उन्होंने उसका कोई मोतबर हवाला भी नहीं दिया है लेकिन आम तौर पर मुहक़्क़िक़ीन ने उसे सही मान लिया और उनका पैदाइश साल यही आम हो गया। डाक्टर फ़क़ीर मुहम्मद ‘फ़क़ीर’ अपनी किताब “बुल्हे शाह” में ‘तारीख़ सत सितारे का हवाला देते हुए सी. एफ़. अस्बोर्न की तरदीद की और 1148 हि. मुताबिक़ 1735 ई. बुल्हे शाह की पैदाइश का सल बताया है। इसी तरह उनके साल-ए-वफ़ात के बारे में भी इसी तरह का झगड़ा है बरक़रार है। ख़ज़ीनत-उल-अस्फ़ियामें लिखा है कि इनकी वफ़ात की तारीख़ 1171 हि. मुताबिक़ 1757 ई. को बिल्कुल सही तस्लीम कर लिया गया लेकिन डाक्टर फ़क़ीर मोहम्मद ‘फ़क़ीर’ ने एक तहक़ीक़ी मक़ाले के हवाले से ये दावा किया है कि बुल्हे शाह 1181 हि. मुताबिक़ 1767 ई. तक ज़िंदा थे।

चूँकि बुल्हे शाह की हयात के बारे में कोई तफ़सीली मालूमात दस्तयाब नहीं हैं इसलिए उनके हर एक मालूमात में अलग दावा और झगड़ा होना ज़रूरी है। उनके नाम के बारे में भी यही बात है डाक्टर फ़क़ीर मोहम्मद ‘फ़क़ीर’ ने कुल्लियात-ए-बुल्हे शाह के तआरुफ़ में ओरीएंटल कॉलेज मैगज़ीन के हवाले से बयान किया है कि बुल्हे शाह का नाम मीर बहली शाह कादरी शत्तारी क़सूरी है। तारीख़-ए-नाफ़े-उस-सालेकीन के मुताबिक़ बुल्हे शाह के बाप ने उनका नाम अबदुल्लाह शाह रखा था।

बुल्हे शाह के वालिद सख़ी शाह मोहम्मद दरवेश ने अपने घरेलू हालात की वजह से उच्च गीलान का गांव छोड़ दिया था। उस वक़्त बुल्हे शाह सिर्फ़ 6 साल के थे और मुल्क-वाल के इलाक़े में जा बसे थे। चौधरी पांडव भट्टी किसी निजी काम से मुल्क-वाल के नज़दीक तलवंडी में आए थे उनको ये बात मालूम पड़ी कि मुल्क-वाल के में एक मौलवी आकर बसे हैं। उस वक़्त पांडवकी, की मस्जिद के इमाम के काम को अंजाम देने के लिए कोई मौलवी न था चुनांचे पांडव भट्टी के यहां के लोगों ने यह फ़ैसला किया कि शाह मोहम्मद दरवेश के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी अर्ज़ी क़ुबूल कर ली और अपने साज़-ओ-सामानके साथ पांडवकी मुंतक़िल हो गए।

यहाँ मस्जिद में रह कर शाह मोहम्मद दरवेश मस्जिद से मुतअल्लिक़ ज़िम्मेदारियाँ सँभालने के साथ तालीम-ओ-तर्बीयत का भी बंद-ओ-बस्त किया। इसी मस्जिद में बुल्हे शाह अपने वालिद से इबतिदाई इल्म हासिल करने लगे और साथ ही वो गाँव में मवेशी चराने का काम भी करते थे। इस बात का कोई मुसद्दिक़ा हवाला नहीं मिलता कि शाह मोहम्मद दरवेश के पुर्वज कहाँ से थे लेकिन फ़क़ीर मोहम्मद फ़क़ीर ये बयान करते हैं कि बुल्हे शाह बुख़ारी सय्यदों के ख़ानदान में पैदा हुए थे।

सख़ी मोहम्मद दरवेश का मक़बरा पांडवकी गांव है जहाँ बुल्हे शाह के यौम-ए-विसाल पर हर साल उर्स की तक़रीबात मुनअक़िद की जाती हैं। उस रोज़ दूर-दराज़ के क़व्वाल उनके रौज़ा पर हाज़िरी देते हैं और बुल्हे शाह की काफ़ीयाँ पेश करते हैं।

बुल्हे शाह के मुर्शिद शाह इनायत अगरचे एक क़ादरी सूफ़ी थे लेकिन उनको शत्तारी दरवेश हज़रत रज़ा शाह शत्तारी ने सूफ़ियाना क़दरों से रोशनास कराया था। चुनांचे वो कादरी शत्तारी के तौर पर मशहूर हैं और उन्हीं निसबत से उनके मुरीद बुल्हे शाह भी कादरी शत्तारी कहलाए।

बुल्हे शाह ने फ़ारसी और अरबी के मशहूर आलिम मुर्तज़ा क़सूरी से तालीम हासिल की जिनके बारे में कहा जाता है कि वो मशहूर क़िस्सा हीर-राँझा के मुसन्निफ़ सय्यद वारिस शाह के साथी थे। बुल्हे शाह ने शादी नहीं की और उम्र-भर कुँवारे रहे इसी तरह उनकी बहुत भी थी जिसने शादी नहीं की और अपनी सारी उम्र ज़िक्र-ओ-अज़कार में गुज़ार दी।

बुल्हे शाह एक सय्यद ख़ानदान से तअल्लुक़ रखते थे लेकिन उनके मुर्शिद शाह इनायत एक बाग़बाँ (अराईं) थे जो मुस्लिम मुआशरे में एक नीची ज़ात से माने जाते थे। जब बुल्हे शाह उनसे बैअत हुए तो उनके ख़ानदान और रिश्तेदारों ने इस पर सख़्त एतराज़ किया और बहुत नाराज़ हुए। बुल्हे शाह ने अपने काफ़ियों में भी इस वाक़िया का ज़िक्र किया है।

कुछ दिनों के बाद बुल्हे शाह और मुर्शिद के बीच शरीअत को लेकर कुछ मतभेद हो गया उसकी वजह ये थी कि शाह इनायत अपने मुरीद को एक रुहानी निज़ाम में बँधा हुआ देखना चाहते थे और वो बुल्हे शाह के बाग़ी रवैय्ये और ख़याल की वजह से नाराज़ हो गए और उन्होंने अपने मुर्शिद की हिदायत को नज़रअंदाज किया और इसका नतीजा ये हुआ कि उनका मुर्शिद के क़्यामगाह पर आने-जाने से मना कर दिया गया। बहुत कम अरसे ही में बुल्हे शाह इस कोशिश में लग गए कि कैसे मुर्शिद तक पहुँच हो। कई तरीक़ा इस्तिमाल किया ताकि उनके दरबार तक रसाई हो सके। आख़िर में उन्होंने महफ़िल-ए-समा जमाने का ख़्याल किया जिसके लिए उन्होंने मौसीक़ी और रक़्स सीखा। चूँकि सिलसिला चिश्तिया के यहाँ महफ़िल-ए-समाअ और मौसीक़ी की इजाज़त है। जबकि ऐसा माना जाता है कि महफ़िल-ए-समाअ का आग़ाज़ अब्दुल-क़ादिर जीलानी के अव्वल जाँनशीन शाह शम्सुद्दीन ने 1170 ई. में इसका आग़ाज़ किया था। अपने मंसूबे के तहत बुल्हे शाह रोज़ इनायत शाह के मस्जिद जाने के रास्ते पर अपनी महफ़िल जमाते। एक दिन इनायत शाह ने उस महफ़िल से आने वाली दर्द-ओ-रंज से भरी आवाज़ को सुना जो उनको ही को मुख़ातब थी। वो महफ़िल में गए और पूछा क्या तुम बुल्हे हो? बुल्हे शाह ने फ़रमाया कि मैं बुल्हा नहीं लेकिन भुल्ला हूँ। भुल्ला का मतलब शर्मिंदा होने के होता है। मुर्शिद ने वहीं बुल्हे को माफ़ कर दिया।

ब-हवाला: हिन्दुस्तानी अदब के मेमार: बुल्हे शाह, मुसन्निफ़ा: सुरेंद्र सिंह कोहली

                     ई हैं लेकिन उनकीपैदाइश का सालऔर पैदाइश की जगहसेमुतअल्लिक़सभी लिखने वाले ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए हैं। उनकीपैदाइशके साल औरमुक़ामकेमुतअल्लिक़सिर्फ क़यास लगाए गए हैं। ‘तारीख़-ए-नाफ़े-उस-सालेकीन के मिसन्निफ़ ने उनकीपैदाइश की जगहउच्च शहर को मानते हैं। जब कि लाजवंती राम कृष्णा ने अपनी किताब पंजाबीसूफ़ीशाएर और मियाँमौलाबख़श ‘कुश्तह ने अपनी किताब पंजाबी शाएराँ दातज़किरा’ में बयान किया है कि बुलहे शाह कीपैदाइशक़सूरज़िलालाहौर में हुई थी।

बल्हे शाह के पैदाइश के साल के बारे में सिर्फ़ सी.एफ़. अस्बोर्न के एक किताबचा जिसका उनवान बुलहे शाह है उसमें उनके वफ़ात का साल 1680 बयान किया गया है उन्होंने उसका कोई मोतबर हवाला भी नहीं दिया है लेकिन आम तौर पर मुहक़्क़िक़ीन ने उसे सही मान लिया और उनका पैदाइश साल यही आम हो गया। डाक्टर फ़क़ीर मुहम्मद ‘फ़क़ीर’ अपनी किताब “बुलहे शाह” में ‘तारीख़ सत सितारे का हवाला देते हुए सी. एफ़. अस्बोर्न की तरदीद की और 1148 हि. मुताबिक़ 1735 ई. बुलहे शाह की पैदाइश का सल बताया है। इसी तरह उनके साल-ए-वफ़ात के बारे में भी इसी तरह का झगड़ा है बरक़रार है। ख़ज़ीनत-उल-अस्फ़ियामें लिखा है कि इनकी वफ़ात की तारीख़ 1171 हि. मुताबिक़ 1757 ई. को बिल्कुल सही तस्लीम कर लिया गया लेकिन डाक्टर फ़क़ीर मोहम्मद ‘फ़क़ीर’ ने एक तहक़ीक़ी मक़ाले के हवाले से ये दावा किया है कि बुलहे शाह 1181 हि. मुताबिक़ 1767 ई. तक ज़िंदा थे।

चूँकि बुलहे शाह की हयात के बारे में कोई तफ़सीली मालूमात दस्तयाब नहीं हैं इसलिए उनके हर एक मालूमात में अलग दावा और झगड़ा होना ज़रूरी है। उनके नाम के बारे में भी यही बात है डाक्टर फ़क़ीर मोहम्मद ‘फ़क़ीर’ ने कुल्लियात-ए-बुलहे शाह के तआरुफ़ में ओरीएंटल कॉलेज मैगज़ीन के हवाले से बयान किया है कि बुलहे शाह का नाम मीर बहली शाह कादरी शत्तारी क़सूरी है। तारीख़-ए-नाफ़े-उस-सालेकीन के मुताबिक़ बुलहे शाह के बाप ने उनका नाम अबदुल्लाह शाह रखा था।

बुलहे शाह के वालिद सख़ी शाह मोहम्मद दरवेश ने अपने घरेलू हालात की वजह से उच्च गीलान का गांव छोड़ दिया था। उस वक़्त बुलहे शाह सिर्फ़ 6 साल के थे और मुल्क-वाल के इलाक़े में जा बसे थे। चौधरी पांडव भट्टी किसी निजी काम से मुल्क-वाल के नज़दीक तलवंडी में आए थे उनको ये बात मालूम पड़ी कि मुल्क-वाल के में एक मौलवी आकर बसे हैं। उस वक़्त पांडवकी, की मस्जिद के इमाम के काम को अंजाम देने के लिए कोई मौलवी न था चुनांचे पांडव भट्टी के यहां के लोगों ने यह फ़ैसला किया कि शाह मोहम्मद दरवेश के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी अर्ज़ी क़ुबूल कर ली और अपने साज़-ओ-सामानके साथ पांडवकी मुंतक़िल हो गए।

यहाँ मस्जिद में रह कर शाह मोहम्मद दरवेश मस्जिद से मुतअल्लिक़ ज़िम्मेदारियाँ सँभालने के साथ तालीम-ओ-तर्बीयत का भी बंद-ओ-बस्त किया। इसी मस्जिद में बुलहे शाह अपने वालिद से इबतिदाई इल्म हासिल करने लगे और साथ ही वो गाँव में मवेशी चराने का काम भी करते थे। इस बात का कोई मुसद्दिक़ा हवाला नहीं मिलता कि शाह मोहम्मद दरवेश के पुर्वज कहाँ से थे लेकिन फ़क़ीर मोहम्मद फ़क़ीर ये बयान करते हैं कि बुलहे शाह बुख़ारी सय्यदों के ख़ानदान में पैदा हुए थे।

सख़ी मोहम्मद दरवेश का मक़बरा पांडवकी गांव है जहाँ बुलहे शाह के यौम-ए-विसाल पर हर साल उर्स की तक़रीबात मुनअक़िद की जाती हैं। उस रोज़ दूर-दराज़ के क़व्वाल उनके रौज़ा पर हाज़िरी देते हैं और बुलहे शाह की काफ़ीयाँ पेश करते हैं।

बुलहे शाह के मुर्शिद शाह इनायत अगरचे एक क़ादरी सूफ़ी थे लेकिन उनको शत्तारी दरवेश हज़रत रज़ा शाह शत्तारी ने सूफ़ियाना क़दरों से रोशनास कराया था। चुनांचे वो कादरी शत्तारी के तौर पर मशहूर हैं और उन्हीं निसबत से उनके मुरीद बुलहे शाह भी कादरी शत्तारी कहलाए।

बुलहे शाह ने फ़ारसी और अरबी के मशहूर आलिम मुर्तज़ा क़सूरी से तालीम हासिल की जिनके बारे में कहा जाता है कि वो मशहूर क़िस्सा हीर-राँझा के मुसन्निफ़ सय्यद वारिस शाह के साथी थे। बुलहे शाह ने शादी नहीं की और उम्र-भर कुँवारे रहे इसी तरह उनकी बहुत भी थी जिसने शादी नहीं की और अपनी सारी उम्र ज़िक्र-ओ-अज़कार में गुज़ार दी।

बुलहे शाह एक सय्यद ख़ानदान से तअल्लुक़ रखते थे लेकिन उनके मुर्शिद शाह इनायत एक बाग़बाँ (अराईं) थे जो मुस्लिम मुआशरे में एक नीची ज़ात से माने जाते थे। जब बुलहे शाह उनसे बैअत हुए तो उनके ख़ानदान और रिश्तेदारों ने इस पर सख़्त एतराज़ किया और बहुत नाराज़ हुए। बुलहे शाह ने अपने काफ़ियों में भी इस वाक़िया का ज़िक्र किया है।

कुछ दिनों के बाद बुलहे शाह और मुर्शिद के बीच शरीअत को लेकर कुछ मतभेद हो गया उसकी वजह ये थी कि शाह इनायत अपने मुरीद को एक रुहानी निज़ाम में बँधा हुआ देखना चाहते थे और वो बुलहे शाह के बाग़ी रवैय्ये और ख़याल की वजह से नाराज़ हो गए और उन्होंने अपने मुर्शिद की हिदायत को नज़रअंदाज किया और इसका नतीजा ये हुआ कि उनका मुर्शिद के क़्यामगाह पर आने-जाने से मना कर दिया गया। बहुत कम अरसे ही में बुलहे शाह इस कोशिश में लग गए कि कैसे मुर्शिद तक पहुँच हो। कई तरीक़ा इस्तिमाल किया ताकि उनके दरबार तक रसाई हो सके। आख़िर में उन्होंने महफ़िल-ए-समा जमाने का ख़्याल किया जिसके लिए उन्होंने मौसीक़ी और रक़्स सीखा। चूँकि सिलसिला चिश्तिया के यहाँ महफ़िल-ए-समाअ और मौसीक़ी की इजाज़त है। जबकि ऐसा माना जाता है कि महफ़िल-ए-समाअ का आग़ाज़ अब्दुल-क़ादिर जीलानी के अव्वल जाँनशीन शाह शम्सुद्दीन ने 1170 ई. में इसका आग़ाज़ किया था। अपने मंसूबे के तहत बुलहे शाह रोज़ इनायत शाह के मस्जिद जाने के रास्ते पर अपनी महफ़िल जमाते। एक दिन इनायत शाह ने उस महफ़िल से आने वाली दर्द-ओ-रंज से भरी आवाज़ को सुना जो उनको ही को मुख़ातब थी। वो महफ़िल में गए और पूछा क्या तुम बुलहे हो? बुलहे शाह ने फ़रमाया कि मैं बुल्हा नहीं लेकिन भुल्ला हूँ। भुल्ला का मतलब शर्मिंदा होने के होता है। मुर्शिद ने वहीं बुलहे को माफ़ कर दिया।

ब-हवाला: हिन्दुस्तानी अदब के मेमार: बुलहे शाह, मुसन्निफ़ा: सुरेंद्र सिंह कोहली

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