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चन्द्रभान ख़याल

1946 | दिल्ली, भारत

नज़्म के जाने माने शायर

नज़्म के जाने माने शायर

चन्द्रभान ख़याल के शेर

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सुब्ह आती है दबे पाँव चली जाती है

घेर लेता है मुझे शाम ढले सन्नाटा

नज़र में शोख़ शबीहें लिए हुए है सहर

अभी कोई इधर से धुआँ धुआँ गुज़रे

लोग मंज़िल की तरफ़ लपके हैं लेकिन

भीड़ में ग़फ़लत भी शामिल हो गई है

शबिस्ताँ-दर-शबिस्ताँ ज़ुल्मतों की एक यूरिश है

हर इक दामन से लिपटा है लरज़ता हाँफता सूरज

मिलता नहीं ख़ुद अपने क़दम का निशाँ मुझे

किन मरहलों में छोड़ गया कारवाँ मुझे

अपनी दीवारों से कुछ बाहर निकल

सिर्फ़ ख़ाली घर के बाम-ओ-दर देख

वक़्त और हालात पर क्या तब्सिरा कीजे कि जब

एक उलझन दूसरी उलझन को सुलझाने लगे

वो जहाँ चाहे चला जाए ये उस का इख़्तियार

सोचना ये है कि मैं ख़ुद को कहाँ ले जाऊँगा

तुम जिसे समझे हो दुनिया उस के आँचल के तले

गेसुओं के पेच और ख़म के सिवा कुछ भी नहीं

कोई दाना कोई दीवाना मिला

शहर में हर शख़्स बेगाना मिला

कर गया सूरज सभी को बे-लिबास

अब कोई साया कोई पैकर देख

ले गया वो छीन कर मेरी जवानी

उस पे बस यूँही झपट कर रह गया मैं

कौन दहशत-गर्द है और कौन है दहशत-ज़दा

ये सब इक इबहाम-ए-पैहम के सिवा कुछ भी नहीं

तेरी परछाईं सिमटती जाएगी

जैसे जैसे फैलता जाएगा तू

इंसान की दुनिया में इंसाँ है परेशाँ क्यूँ

मछली तो नहीं होती बेचैन कभी जल में

पास से देखा तो जाना किस क़दर मग़्मूम हैं

अन-गिनत चेहरे कि जिन को शादमाँ समझा था मैं

सोचता हूँ तो और बढ़ती है

ज़िंदगी है कि प्यास है कोई

क्या उसी का नाम है रा'नाई-ए-बज़्म-ए-हयात

तंग कमरा सर्द बिस्तर और तन्हा आदमी

शहर में जुर्म-ओ-हवादिस इस क़दर हैं आज-कल

अब तो घर में बैठ कर भी लोग घबराने लगे

हमारे घर के आँगन में सितारे बुझ गए लाखों

हमारी ख़्वाब गाहों में चमका सुब्ह का सूरज

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