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दीपक पुरोहित

1954 | जयपुर, भारत

दीपक पुरोहित

ग़ज़ल 4

 

अशआर 21

कहाँ जुरअत इन अश्कों की कि देहरी आँख की लाँघें

है पहरा ज़ब्त का ऐसा कि सहमे सहमे रहते हैं

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ख़ुशामद ताबेदारी मिन्नत-ओ-ख़िदमत सुजूद-ए-हुस्न

अज़ल से दीदनी है बेबसी-ओ-आजिज़ी-ए-इश्क़

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ये कैसी बद-दुआ' दी है किसी ने

समुंदर हूँ मगर खारा हुआ हूँ

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यूँ गुफ़्तुगू-ए-उल्फ़त दिलचस्प हम करेंगे

आँखों से तुम कहोगे आँखों से हम सुनेंगे

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वतन-परस्ती हमारा मज़हब हैं जिस्म-ओ-जाँ मुल्क की अमानत

करेंगे बरपा क़हर अदू पर रहेगा दाइम वतन सलामत

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