फ़रहत शहज़ाद के शेर
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
यानी ये होश की दीवार गिरा दी जाए
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
बिन तिरे चाँद सितारे नहीं देखे जाते
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तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की
मैं अपनी ज़ात से इंकार किस तरह करता
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अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
इसी लिए है ख़फ़ा मेरा नाख़ुदा मुझ से
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ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
इक मकाँ ही नहीं ला-मकाँ ख़्वाब है
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बात अपनी अना की है वर्ना
यूँ तो दो हाथ पर किनारा है
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सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
ग़म किसे कहते हैं ख़ुशी क्या है
मैं शायद तेरे दुख में मर गया हूँ
कि अब सीने में कुछ दुखता नहीं है
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परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
तुझे मैं ने फ़क़त चाहा नहीं है
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हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम
कौन से लफ़्ज़ों में समझाऊँ तुम्हें दिल का पयाम
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तुझ को खो कर मुझ पर वो भी दिन आए
छुप न सका दुख पीछे कई नक़ाबों के
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मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
फिर मैं ये दोनों जहाँ ''बात ज़रा सी'' लिक्खूँ
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