ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ के शेर
ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
तमाम उम्र भला कौन साथ देता है
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शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है
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रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
शुऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है
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टैग : सफ़र
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निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़
गुलों ने और भी शबनम से ताज़गी पाई
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टैग : रुख़्सार
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बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं
पत्थरों की ज़द पर कुछ आईने भी होते हैं
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टैग : हादसा
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छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
पियो शराब कि चेहरे पे नूर आ जाए
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टैग : शराब
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यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
हर शय ने साथ छोड़ दिया है तिरी तरह
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किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
कि माहताब तह-ए-आफ़्ताब आया है
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टैग : शराब
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तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन
किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था
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ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
ग़म-ए-ज़िंदगी से मफ़र भी नहीं
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ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
सफ़र में और कोई हम-सफ़र मिले न मिले
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मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
हम ने मुड़ कर भी न देखा किसी मंज़िल की तरफ़
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जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
जनाब-ए-शैख़ को हम भी मगर समझते हैं
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मेरे अफ़्कार की रानाइयाँ तेरे दम से
मेरी आवाज़ में शामिल तिरी आवाज़ भी है
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मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए
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लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं
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बड़े बड़ों के क़दम डगमगा गए 'ताबाँ'
रह-ए-हयात में ऐसे मक़ाम भी आए
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आँसुओं से कोई आवाज़ को निस्बत न सही
भीगती जाए तो कुछ और निखरती जाए
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ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है
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हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
इलाही यूँ तो किसी का न राहबर गुम हो
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जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है
वो ज़ेर-ए-दर है साक़ी और ये ज़ेर-ए-दाम है साक़ी
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उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'
हमारी बे-सर-ओ-सामानियों के दिन आए
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आज किसी ने बातों बातों में जब उन का नाम लिया
दिल ने जैसे ठोकर खाई दर्द ने बढ़ कर थाम लिया
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