गुलज़ार बुख़ारी के शेर
जाने वालों की कमी पूरी कभी होती नहीं
आने वाले आएँगे फिर भी ख़ला रह जाएगा
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चलूँ तो मस्लहत ये कह के पाँव थाम लेती है
वहाँ जाना भी क्या हासिल जहाँ से कुछ नहीं होता
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ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं
आज-कल सिदक़-ओ-सफ़ा ताक़ पे रक्खे हुए हैं
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कौन पस-ए-मंज़र में उजड़े पैकरों को देखता
शहर की नज़रें लिबास-ए-ख़ुशनुमा में खो गईं
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रंग-ओ-बू का शौक़ आशोब-ए-हवा में ले गया
तितलियाँ घर से निकल कर इब्तिला में खो गईं
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