ज्ञानेंद्र विक्रम के शेर
पियाला ज़हर का लाए हो पीने क्यों नहीं देते
मिरे मरने पे रोना है तो जीने क्यों नहीं देते
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वस्ल के दो-चार लम्हे रोज़ गिन गिन देखना
रह गया था ज़िंदगी में क्या यही दिन देखना
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ख़्वाब में चूमा था तुम ने और तब से आज तक
घेर लेती हैं मुझे हर गुलसिताँ की तितलियाँ
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दिन-ब-दिन रोग ये बढ़ता ही चला जाता है
दिन-ब-दिन तू मिरी बुनियाद हुई जाती है
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तेरे काँधे पे मोहब्बत का टिका है परचम
जान बे-शक न रहे हार न होने पाए
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चार दीवारें तमाशा देखती हैं रोज़ रात
नाचती है ज़िंदगी और ताकता रहता हूँ मैं
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