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Haidar Ali Aatish's Photo'

हैदर अली आतिश

1778 - 1847 | लखनऊ, भारत

मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन, 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़ल का रौशन सितारा।

मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन, 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़ल का रौशन सितारा।

हैदर अली आतिश का परिचय

उपनाम : 'आतिश'

मूल नाम : ख़्वाजा हैदर अली

जन्म :फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

निधन : 13 Jan 1847 | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

संबंधी : मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी (गुरु)

LCCN :n83167275

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तुगू करते

व्याख्या

यह आतिश के मशहूर अशआर में से एक है। आरज़ू के मानी तमन्ना है , रूबरू के मानी आमने सामने, बेताब के मानी बेक़रार है। बुलबुल-ए-बेताब यानी वो बुलबुल जो बेक़रार हो जिसे चैन हो।

इस शे’र का शाब्दिक अर्थ तो ये है कि हमें ये तमन्ना थी कि महबूब हम तुझे गुल के सामने बिठाते और फिर बुलबुल जो बेचैन है उससे बातचीत करते।

लेकिन इसमें अस्ल में शायर ये कहता है कि हमने एक तमन्ना की थी कि हम अपने महबूब को फूल के सामने बिठाते और फिर बुलबुल जो गुल के इश्क़ में बेताब है उससे गुफ़्तगू करते। मतलब ये कि हमारी इच्छा थी कि हम अपने गुल जैसे चेहरे वाले महबूब को गुल के सामने बिठाते और फिर उस बुलबुल से जो गुल के हुस्न की वज्ह से उसका दीवाना बन गया है उससे गुफ़्तगू करते यानी बहस करते और पूछते कि बुलबुल अब बता कौन ख़ूबसूरत है, तुम्हारा गुल या मेरा महबूब। ज़ाहिर है इस बात पर बहस होती और आख़िर बुलबुल जो गुल के हुस्न में दीवाना हो गया है अगर मेरे महबूब के हुस्न को देखेगा तो गुल की तारीफ़ में चहचहाना भूल जाएगा।

शफ़क़ सुपुरी

व्याख्या

यह आतिश के मशहूर अशआर में से एक है। आरज़ू के मानी तमन्ना है , रूबरू के मानी आमने सामने, बेताब के मानी बेक़रार है। बुलबुल-ए-बेताब यानी वो बुलबुल जो बेक़रार हो जिसे चैन हो।

इस शे’र का शाब्दिक अर्थ तो ये है कि हमें ये तमन्ना थी कि महबूब हम तुझे गुल के सामने बिठाते और फिर बुलबुल जो बेचैन है उससे बातचीत करते।

लेकिन इसमें अस्ल में शायर ये कहता है कि हमने एक तमन्ना की थी कि हम अपने महबूब को फूल के सामने बिठाते और फिर बुलबुल जो गुल के इश्क़ में बेताब है उससे गुफ़्तगू करते। मतलब ये कि हमारी इच्छा थी कि हम अपने गुल जैसे चेहरे वाले महबूब को गुल के सामने बिठाते और फिर उस बुलबुल से जो गुल के हुस्न की वज्ह से उसका दीवाना बन गया है उससे गुफ़्तगू करते यानी बहस करते और पूछते कि बुलबुल अब बता कौन ख़ूबसूरत है, तुम्हारा गुल या मेरा महबूब। ज़ाहिर है इस बात पर बहस होती और आख़िर बुलबुल जो गुल के हुस्न में दीवाना हो गया है अगर मेरे महबूब के हुस्न को देखेगा तो गुल की तारीफ़ में चहचहाना भूल जाएगा।

शफ़क़ सुपुरी

आतिश को आमतौर पर दबिस्तान-ए-लखनऊ का प्रतिनिधि शायर कहा गया है लेकिन हक़ीक़त ये है कि इनकी शायरी में दबिस्तान-ए-दिल्ली की शायरी के निशान मौजूद हैं और वो लखनऊ की बाहरी और दिल्ली की आंतरिक शायरी की सीमा रेखा पर खड़े नज़र आते हैं। वो बुनियादी तौर पर इश्क़-ओ-आशिक़ी के शायर हैं लेकिन उनका कलाम लखनऊ के दूसरे शायरों के विपरीत आलस्य और अपमान से पाक है, उनके यहां लखनवियत का रंग ज़रूर है लेकिन ख़ुशबू दिल्ली की है। अगर उन्होंने ये कहा;
शब-ए-वस्ल थी चांदनी का समां था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था

तो ये भी कहा;
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
कोई ख़रीद के टूटा प्याला क्या करता
आतिश अंतर्ज्ञान और सौंदर्यबोध के शायर थे। राम बाबू सक्सेना उनको ग़ज़ल में मीर-ओ-ग़ालिब के बाद तीसरा बड़ा शायर क़रार देते हैं।

आतिश का नाम ख़्वाजा हैदर अली था और उनके वालिद का नाम अली बख़्श बताया जाता है। उनके बुज़ुर्गों का वतन बग़दाद था, जो आजीविका की तलाश में दिल्ली आए थे और शुजा-  उद्दौला के ज़माने में फ़ैज़ाबाद चले गए थे। आतिश की पैदाइश फ़ैज़ाबाद में हुई। आतिश गोरे चिट्टे, ख़ूबसूरत, खिंचे हुए डीलडौल और छरेरे बदन के थे। अभी पूरी तरह जवान न हो पाए थे कि वालिद का इंतिक़ाल हो गया और शिक्षा पूरी न हो पाई। दोस्तों के प्रोत्साहन से पाठ्य पुस्तकें देखते रहे। किसी कार्यवाहक की अनुपस्थिति में उनके मिज़ाज में आवारगी आगई। वो बांके और शोख़ हो गए। उस ज़माने में बांकपन और बहादुरी की बड़ी क़द्र थी। बात बात पर तलवार खींच लेते थे और कमसिनी से तलवारिए मशहूर हो गए थे। आतिश की सलाहियतों और सिपाहीयाना बांकपन ने नवाब मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी ख़ां तरक़्क़ी, रईस फ़ैज़ाबाद  को प्रभावित किया जिन्होंने उनको अपने पास मुलाज़िम रख लिया। फिर जब नवाब मौसूफ़ फ़ैज़ाबाद छोड़कर लखनऊ आ गए तो आतिश भी उनके साथ लखनऊ चले गए। लखनऊ में उस वक़्त मुसहफ़ी और इंशा की कामयाबियों को देखकर उन्हें शायरी का शौक़ पैदा हुआ। उन्होंने शायरी अपेक्षाकृत देर से लगभग 29 साल की उम्र में शुरू की और मुसहफ़ी के शागिर्द हो गए। लखनऊ में रफ़्ता-रफ़्ता उनकी संगत भी बदल गई और अध्ययन का शौक़ पैदा हुआ और रात-दिन ज्ञान सम्बंधी चर्चाओं में व्यस्त रहने लगे। स्वभाव में गर्मी अब भी बाक़ी थी और कभी कभी उस्ताद से भी नोक-झोंक हो जाती थी। लखनऊ पहुंचने के चंद साल बाद तरक़्क़ी का देहांत हो गया,जिसके बाद आतिश ने आज़ाद रहना पसंद किया, किसी की नौकरी नहीं की। कुछ तज़किरों के मुताबिक़ वाजिद अली शाह अपने शहज़ादगी के दिनों से ही 80 रुपये माहाना देते थे। कुछ मदद प्रशंसकों की तरफ़ से भी हो जाती थी लेकिन आख़िरी दिनों में ईश्वर भरोसे पर गुज़ारा था, फिर भी घर के बाहर एक घोड़ा ज़रूर बंधा रहता था। सिपाहियाना, रिंदाना और आज़ादाना ढब रखते थे जिसके साथ साथ कुछ रंग फ़क़ीरी का था। बुढ़ापे तक तलवार कमर में बांध कर सिपाहियाना बांकपन निबाहते रहे। एक बाँकी टोपी भँवों पर रखे जिधर जी चाहता निकल जाते। अपने ज़माने में बतौर शायर उनकी बड़ी क़द्र थी लेकिन उन्होंने मान-सम्मान की ख़ाहिश कभी नहीं की, न अमीरों के दरबार में हाज़िर हो कर ग़ज़लें सुनाईं, न कभी किसी की निंदा लिखी। लापरवाही का ये हाल था कि बादशाह ने कई बार बुलवाया मगर ये नहीं गए। उनका एक बेटा था जिसका नाम मोहम्मद अली और जोश तख़ल्लुस था। आतिश ने लखनऊ में ही 1848 ई. में इंतिक़ाल किया। आख़िरी उम्र में आँख की रोशनी जाती रही थी।

मज़हब अस्ना अशरी होने के बावजूद आतिश आज़ाद ख़्याल थे। उनका ख़ानदान सूफ़ियों और ख़्वाजा ज़ादों का था, फिर भी उन्होंने कभी पीरी-मुरीदी नहीं की और दरवेशी-ओ-फ़क़ीरी का आज़ादाना मसलक इख़्तियार किया, वो तसव्वुफ़ से भी प्रभावित थे जिसका असर उनकी शायरी में नज़र आता है। उनका दीवान उनकी ज़िंदगी में ही 1845 ई. में छप गया था। शागिर्दों की तादाद बहत्तर थी जिनमें बहुत से, दया शंकर नसीम सहित नवाब मिर्ज़ा शौक़, वाजिद अली शाह, मीर दोस्त अली ख़लील, नवाब सय्यद मुहम्मद ख़ान रिंद और मीर वज़ीर अली सबा अपनी अपनी तर्ज़ के बेमिसाल शायर हुए।

आतिश और नासिख़ में समकालिक रंजिश थी लेकिन वो इस घटिया सतह पर कभी नहीं उतरी जिसका नज़ारा लखनऊ के लोग मुसहफ़ी और इंशा के मुआमले में देख चुके थे। असल में दोनों के शायराना अंदाज़ एक दूसरे से बिल्कुल अलग थे। नासिख़ के अनुयायी कठिन विषयों के चाहनेवाले थे जबकि आतिश के चाहनेवाले मुहावरे की सफ़ाई, कलाम की सादगी, शे’र की तड़प और कलाम की प्रभावशीलता पर जान देते थे। आतिश ने अपने उस्ताद मुसहफ़ी के नाम को रोशन किया बल्कि कुछ लोग उनको मुसहफ़ी से बेहतर शायर मानते हैं। मुहम्मद हुसैन आज़ाद लिखते हैं, “जो कलाम उनका है, वो हक़ीक़त में उर्दू के मुहावरे की नियमावली है और निबंध लेखन का श्रेष्ठ उदाहरण, लखनऊ के शोरफ़ा की बोल-चाल का अंदाज़ इससे मालूम होता है। जिस तरह लोग बातें करते हैं, उन्होंने शे’र कह दिए।”

आतिश आम तौर पर शीर्ष विषयों को तलाश करते हैं, उनके अशआर में शोख़ी और बांकपन है। कलाम में एक तरह की मर्दानगी पाई जाती है जिसने उनके कलाम में एक तरह की महिमा और गरिमा पैदा कर दी। नासिख़ के मुक़ाबले में उनकी ज़बान ज़्यादा दिलफ़रेब है। ग़लत-उल-आम को अशआर में इस तरह खपाते हैं कि बक़ौल इमदाद इमाम असर, "चेहरा-ए-ज़ेबा पर ख़ाल का हुक्म” रखते हैं। ग़ालिब के नज़दीक आतिश के यहां नासिख़ के मुक़ाबले में ज़्यादा नशतर पाए जाते हैं। अब्दुस्सलाम नदवी कहते हैं, "उर्दू ज़बान में रिंदाना मज़ामीन में ख़्वाजा हाफ़िज़ के जोश और उनकी सरमस्ती का इज़हार सिर्फ़ ख़्वाजा आतिश की ज़बान से हुआ है।”आतिश की शायरी आशावादी और ज़िंदगी की क़ुव्वत से भरपूर है। ग़म और दर्द का ज़िक्र उनके यहां बहुत कम है। उनका ज़ोरदार और पुरजोश लहजा कठिनाइयों का मर्दानावार मुक़ाबला करना सिखाता है। उनके कलाम में एक तरह की ललकार और आतिश नवाज़ी मिलती है, उन्होंने आम उपमाओं और रूपकों से हट कर सीधे ग़ज़ल का जादू जगाया। उनके अख़लाक़ी अशआर में भी क़लंदराना अंदाज़ है;
अजब क़िस्मत अता की है ख़ुदा ने अह्ल-ए-ग़ैरत को
अजब ये लोग हैं ग़म खा के दिल को शाद करते हैं
उनके बहुत से अशआर और मिसरे कहावतों की हैसियत रखते हैं, जैसे; 
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहतेरे
हज़ारहा शजर सायादार राह में है

सुन तो सही जहां में है तेरा फ़साना क्या

बदलता है रंग-ए-आसमाँ कैसे कैसे

बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का

आतिश उर्दू के उन शायरों में से हैं जिनकी महानता और महत्ता से इनकार कोई कट्टर पूर्वाग्रही और नासिख़ का चाहनेवाला ही कर सकता है।

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