हनीफ़ कैफ़ी
अशआर 11
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में
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अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
ख़ुद मिरी मौत का मातम है मिरे जीने में
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अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
तअल्लुक़ात में हाइल है बात की दीवार
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तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
मुझे न आवाज़ दे ज़माने मैं अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ
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मिले वो लम्हा जिसे अपना कह सकें 'कैफ़ी'
गुज़र रहे हैं इसी जुस्तुजू में माह-ओ-साल
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