हनीफ़ कैफ़ी
अशआर 11
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में
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अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
ख़ुद मिरी मौत का मातम है मिरे जीने में
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अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
तअल्लुक़ात में हाइल है बात की दीवार
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अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
ढल गया हूँ मैं सरापा तिरे आईने में
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शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'
हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ
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