हसन अकबर कमाल के शेर
एक दिया कब रोक सका है रात को आने से
लेकिन दिल कुछ सँभला तो इक दिया जलाने से
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गए दिनों में रोना भी तो कितना सच्चा था
दिल हल्का हो जाता था जब अश्क बहाने से
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बड़ों ने उस को छीन लिया है बच्चों से
ख़बर नहीं अब क्या हो हाल खिलौने का
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दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका
पत्थर में इस गुलाब को बोया न जा सका
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दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए
हवा के सामने ये इम्तिहान रखना है
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कल यही बच्चे समुंदर को मुक़ाबिल पाएँगे
आज तैराते हैं जो काग़ज़ की नन्ही कश्तियाँ
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न टूटे और कुछ दिन तुझ से रिश्ता इस तरह मेरा
मुझे बर्बाद कर दे तू मगर आहिस्ता आहिस्ता
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बनाए जाता था मैं अपने हाथ को कश्कोल
सो मेरी रूह में ख़ंजर उतरता जाता था
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वफ़ा परछाईं की अंधी परस्तिश
मोहब्बत नाम है महरूमियों का
पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
सीखा फ़न हम ने बे-आँसू रोने का
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क्या तर्जुमानी-ए-ग़म-ए-दुनिया करें कि जब
फ़न में ख़ुद अपना ग़म भी समोया न जा सका
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