हसन ताहिर के शेर
ग़म-ए-हयात ने फ़ुर्सत न दी सुनाने की
चले थे हम भी मोहब्बत की दास्ताँ ले कर
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यहाँ न मैं हूँ न तू है न कोई शहनाई
पहुँच गई है तिरी आरज़ू कहाँ ले कर
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