हज़ीं लुधियानवी के शेर
नज़र न आई कभी फिर वो गाँव की गोरी
अगरचे मिल गए देहात आ के शहरों से
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तुलूअ होगा अभी कोई आफ़्ताब ज़रूर
धुआँ उठा है सर-ए-शाम फिर चराग़ों से
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आओ मिल बैठ कर हँसें बोलें
नहीं मालूम कब जुदा हो जाएँ
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तुंदी-ए-सैल-ए-वक़्त में ये भी है कोई ज़िंदगी
सुब्ह हुई तो जी उठे, रात हुई तो मर गए
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टैग : ज़िंदगी
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उतर के नीचे कभी मेरे साथ भी तो चलो
बुलंद खिड़कियों से कब तलक पुकारोगे
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जो पा लिया तुझे मैं ख़ुद को ढूँडने निकला
तुम्हारे क़ुर्ब ने भी ज़ख़्म-ए-ना-रसाई दिया
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