हुसैन मजरूह के शेर
फैला हुआ है वक़्त की दहलीज़ पर धुआँ
उस आग का जो आज भी रौशन नहीं हुई
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वो क़हत-ए-मुख़्लिसी है कि यारों की बज़्म से
ग़ीबत निकाल दें तो फ़क़त ख़ामुशी बचे
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सदा-ए-दर्द लगाता हूँ उस गली में जहाँ
शगुफ़्त-ए-गुल भी समा'अत पे बार होती है
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