इफ़्फ़त ज़र्रीं के शेर
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे
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पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
किस शहर में उड़ा के हवा ले गई मुझे
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वो मिल गया तो बिछड़ना पड़ेगा फिर 'ज़र्रीं'
इसी ख़याल से हम रास्ते बदलते रहे
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देख कर इंसान की बेचारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए
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वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता
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अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
तो अपने साथ सितारों का क़ाफ़िला रखता
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कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
मेरे चेहरे से वो अपनी हर निशानी ले गया
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