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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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इकराम मुजीब

इकराम मुजीब के शेर

इस हसीन मंज़र से दुख कई उभरने हैं

धूप जब उतरनी है बर्फ़ के मकानों पर

किस क़दर गुनाहों के मुर्तकिब हुए हैं हम

जो सुकून लुटता है बार बार इस घर का

कम ज़रा होने दी एक लफ़्ज़ की हुरमत

एक अहद की सारी उम्र पासदारी की

हिज्र की मसाफ़त में साथ तू रहा हर दम

दूर हो गए तुझ से जब तिरे क़रीं पहुँचे

एक दर्द की लज़्ज़त बरक़रार रखने को

कुछ लतीफ़ जज़्बों की ख़ूँ से आबयारी की

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