इकराम मुजीब के शेर
इस हसीन मंज़र से दुख कई उभरने हैं
धूप जब उतरनी है बर्फ़ के मकानों पर
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किस क़दर गुनाहों के मुर्तकिब हुए हैं हम
जो सुकून लुटता है बार बार इस घर का
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कम ज़रा न होने दी एक लफ़्ज़ की हुरमत
एक अहद की सारी उम्र पासदारी की
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हिज्र की मसाफ़त में साथ तू रहा हर दम
दूर हो गए तुझ से जब तिरे क़रीं पहुँचे
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एक दर्द की लज़्ज़त बरक़रार रखने को
कुछ लतीफ़ जज़्बों की ख़ूँ से आबयारी की
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