इमदाद अली बहर के शेर
काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ मैं सब से मोहब्बत है मुझे
एक बुत क्या कि समाया है कलीसा दिल में
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अमीर शाल दो-शालों में गर्म-ए-राहत-ओ-ऐश
ग़रीब के लिए जाड़ों में ज़िंदगानी धूप
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सौ फ़साद एक इश्क़ में उट्ठे
बोया इक तुख़्म उगे हज़ार दरख़्त
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न मोहब्बत है दिलों में न हया आँखों में
ये सनम तू ने बनाए हैं ख़ुदाया कैसे
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देखिए तर्क-ए-अदब की क्या मिली ता'ज़ीर कल
पीठ है सू-ए-हरम मुँह है सू-ए-बुत-ख़ाना आज
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रिआ'यत चाहिए ऐसी कि ज़ेबाई हो मा'नी की
उरूस-ए-शेर का ऐ 'बहर' ज़ेवर हो तो ऐसा हो
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आए भी तो खाए न गिलौरी न मला इत्र
रोकी मिरी दावत मुझे मेहमाँ से गिला है
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तकिया अगर नसीब हो ज़ानू-ए-यार का
मैं ऐसी नींद सोऊँ कि साबित हो मर गया
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क्या है मुझे देते हो गिलौरी
चूने में कहीं न संख्या हो
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वो कूचा शेर-ओ-सुख़न का है तंग-ओ-तार ऐ 'बहर'
कि सूझते नहीं मा'नी बड़े ज़हीनों को
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मिरे क़त्ल पर तुम ने बीड़ा उठाया
मिरे हाथ का पान खाया तो होता
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आशिक़ से नाक-भौं न चढ़ा ओ किताब-रू
हम दर्स-ए-इश्क़ में ये अलिफ़ भी पढ़े नहीं
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नहीं जी चाहता मिलने को सुबुक-वज़ओं से
क्या करें हम जो मिज़ाज अपना गिरानी माँगे
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ज़ालिम हमारी आज की ये बात याद रख
इतना भी दिल-जलों का सताना भला नहीं
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मुख़्तार हैं वो लिक्खें न लिक्खें जवाब-ए-ख़त
साहब को रोज़ अपना अरीज़ा रिपोर्ट है
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यार को देखते ही मर गए ऐ 'बहर' अफ़्सोस
ख़ाक मेरी कोई आँखों में क़ज़ा की झोंके
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मिरे बग़ैर न इक-दम उसे क़रार आता
ज़रा भी ज़ब्त जो मुझ बे-क़रार में होता
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दिखाया उस ने बन-ठन कर वो जल्वा अपनी सूरत का
कि पानी फिर गया आईने पर दरिया-ए-हैरत का
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चोटी गुंध्वाई हुई यार ने खुलवा डाली
रहम आया कोई महबूस-ए-रसन याद आया
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ज़ाहिद सुनाऊँ वस्फ़ जो अपनी शराब के
पढ़ने लगें दरूद फ़रिश्ते सवाब के
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रोना बिना-ए-ख़ाना-ख़राबी है मिस्ल-ए-शम्अ'
टपके जो सक़्फ़-ए-चश्म हो तो क़स्र-ए-तन ख़राब
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कोई फल पाएगा क्या तुख़्म-ए-मोहब्बत बो कर
इस अमर-बेल में तो बर्ग-ओ-समर कुछ भी नहीं
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अपनी अंगिया की कटोरी न दिखाओ मुझ को
कहीं ठर्रे की हवस में न ये मय-ख़्वार बंधे
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तेग़-ए-इरफ़ाँ से रूह बिस्मिल है
हाल पर अपने हाल आता है
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ख़ुश रहो यार अगर हम से हो बेज़ार बहुत
दिल अगर अपना सलामत है तो दिलदार बहुत
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पूछे रिंदों से कोई इन मुफ़्तियों का झूट सच
दो दलीलों से ये कर लेते हैं दा'वा झूट सच
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किसी गुल को जो अपना तुर्रा-ए-दस्तार समझे हम
तो बरसों टोकरा सर पर उठाया सरगिरानी का
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क्या क्या न मुझ से संग-दिली दिलबरों ने की
पत्थर पड़ें समझ पे न समझा किसी तरह
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मुझी पर क़त्अ हुई है क़बा-ए-दिल-सोज़ी
हवा से आ के छुपे मेरे पैरहन में चराग़
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क़त्ल पर बीड़ा उठा कर तेग़ क्या बाँधोगे तुम
लो ख़बर अपनी दहन गुम है कमर मिलती नहीं
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प्यार की आँख से दुश्मन को भी जो देखते हैं
हम ने ऐसे भी हैं अल्लाह के प्यारे देखे
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आँखें न जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे
क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे
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ज़ुल्फ़-ए-दू-ता दोराहा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ्र है
ज़ाहिद इधर ख़राब उधर बरहमन ख़राब
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ख़ूब चलती है नाव काग़ज़ की
घर में क़ाज़ी के माल आता है
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मैं हाथ जोड़ता हूँ बड़ी देर से हुज़ूर
लग जाइए गले से अब इंकार हो चुका
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वाइ'ज़ो हम रिंद क्यूँ-कर काबिल-ए-जन्नत नहीं
क्या गुनहगारों को मीरास-ए-पिदर मिलती नहीं
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क़ाज़ी को जो रिंद कुछ चटा दें
मस्जिद की बग़ल में मय-कदा हो
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दुनिया में 'बहर' कौन इबादत-गुज़ार है
सौम-ओ-सलात दाख़िल-ए-रस्म-ओ-रिवाज है
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काँटों पे मिस्ल-ए-क़ैस कहाँ तक रवाँ-दवाँ
लैला-ए-जाँ है जिस्म की महमिल से दिल उचाट
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मेरा लहू चटाएगा जब तक न तेग़ को
क़ातिल को दहने हाथ से खाना हराम है
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ग़ैर पर क्यूँ निगाह करते हो
मुझ को इस तीर का निशाना करो
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बे-तरह दिल में भरा रहता है ज़ुल्फ़ों का धुआँ
दम निकल जाए किसी रोज़ न घुट कर अपना
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कमाल-ए-तालिब-ए-दुनिया-ए-दूँ है पीर-ए-हरम
ख़ुदा के घर में है लेकिन ख़ुदा से बाहर है
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जूता नया पहन के वो पंजों के बल चले
कपड़े बदल के जामे से बाहर निकल चले
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चिल्ला रहा हूँ क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मय की शक्ल
दे जाम के लबों से मुझे साक़िया जवाब
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एक बोसा मिरी तनख़्वाह मिले न मिले
आरज़ू है कि न क़दमों से ये नौकर छूटे
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अब्र-ए-बहार अब भी जचता नहीं नज़र में
कुछ आँसुओं के क़तरे अब भी हैं चश्म-ए-तर में
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होगा ज़रूर एक न इक दिन मुबाहिसा
रिज़वाँ से और कू-ए-सनम के मुक़ीम से
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कब तालिब-ए-राहत हुए ज़ख़्मी-ए-मोहब्बत
मरहम की जो हाजत हुई तेज़ाब बनाया
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न निकलेगा दिल उस के गेसू में फँस कर
ये काला कभी मन उगलता नहीं है
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