इमरान बदायूनी
चित्र शायरी 1
आसमाँ मिल न सका धरती पे आया न गया ज़िंदगी हम से कोई ठौर बनाया न गया आसमां मुझ से मियाँ हुजरे में लाया न गया शाइरी छोड़ दी मफ़्हूम चुराया न गया नौकरी की, लिखी नज़्में, सुकूँ पाया न गया शहर-ए-दिल तुझ को किसी तौर बसाया न गया घर की वीरानियाँ रुस्वा हुईं बेकार में ही मुझ से बाज़ार में भी वक़्त बिताया न गया जोश में ढा तो दी रिश्ते की इमारत लेकिन दोनों से आज तलक मलबा हटाया न गया ख़ून के दाग़ न आ जाएँ मिरे लहजे में इस लिए ग़ज़लों को अख़बार बनाया न गया दिख न जाए तू बिछड़ती हुई बस इस डर से मुझ से आँखों को कोई ख़्वाब दिखाया न गया अपना हिस्सा भी तो माँगा है ज़मीं से मैं ने आसमां यूँ ही मिरे सर पे गिराया न गया जो तिरी याद के पंछी न रुके क्या है अजब उम्र भर दिल में तो तुझ को भी बिठाया न गया ज़ात मज़हब कि ज़बाँ नाम उसी के तो हैं सब ख़ुद को जिस क़ैद से ता-उम्र छुड़ाया न गया ख़ाक दरिया के किनारों को मिलाऊँगा मैं ख़ुद को ही आज तलक ख़ुद से मिलाया न गया मेरा ईमान हुआ ख़र्च जिसे पाने में क्या ग़ज़ब होगा जो उस शय को बचाया न गया