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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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इम्तियाज़ अहमद क़मर

1944 - 1993 | दरभंगा, भारत

इम्तियाज़ अहमद क़मर

ग़ज़ल 7

नज़्म 4

 

अशआर 20

उस ने हाथों की लकीरों से बग़ावत की थी

अब जहाँ होगा मिरी तरह वो तन्हा होगा

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जब शहर में दुश्मन मिरा कोई भी नहीं था

फिर कौन ये ख़ंजर की ज़बाँ बोल रहा है

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ज़ब्त-ए-ग़म का मिरे अंदाज़ा भला क्या होता

मैं अगर दश्त होता भी तो दरिया होता

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मजबूर का शिकवा क्या मजबूर की आहें क्या

ये आप की दुनिया है बस आप की चलती है

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यूँ तो क़दम क़दम पे ख़ुदा सैंकड़ों मिले

बंदा मिल सका कोई बंदों के शहर में

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