इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन के शेर
चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर
दे ले साक़ी हम को मय ये अब्र-ए-बाराँ फिर कहाँ
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क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअत्तर हो गया
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दोस्ती बद बला है इस में ख़ुदा
किसी दुश्मन को मुब्तला न करे
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ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने
ज़ाहिद तुझे क़सम है जो तू हो तो क्या करे
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हक़ मुझे बातिल-आश्ना न करे
मैं बुतों से फिरूँ ख़ुदा न करे
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अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
निरा बुरा नहीं ये शग़्ल कुछ भला भी है
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उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
नाला मशहूर ग़लत है कि असर करता है
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मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
जिंस तो है पे ज़ुलेख़ा सा ख़रीदार कहाँ
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सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
बेगानगी से उस की कोई आश्ना नहीं
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ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे
अगर पीवे कोई उन को तो जल कर ख़ाक हो जावे
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टैग : आँसू
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इस अश्क ओ आह में सौदा बिगड़ न जाए कहीं
ये दिल कुछ आब-रसीदा है कुछ जला भी है
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सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
हमें ज़िल्ल-ए-हुमा से साया-ए-दीवार बेहतर था
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तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
जो टुक दम मार सकते हम तो कुछ फ़िक्र-ए-सुख़न करते
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मुझे ज़ंजीर कर रक्खा है इन शहरी ग़ज़ालों ने
नहीं मालूम मेरे बा'द वीरानों पे क्या गुज़री
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