इक़बाल ख़ुसरो क़ादरी के शेर
बंद आँखों में सारा तमाशा देख रहा था
रस्ता रस्ता मेरा रस्ता देख रहा था
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मैं नहीं मिलता किसी से
बंद फाटक बोलता है
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जब साया भी शीशे की तरह टूट गया
दीवार ने देखा ये तमाशा न कभी
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रोता है कोई किसी के ग़म में
सब अपने ही दुख बिचारते हैं
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सरहद-ए-जाँ तलक क़लम-रौ दिल
इस से आगे निज़ाम दर्द का है
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