जगदीश सहाय सक्सेना के शेर
हुई थी इक ख़ता सरज़द सो उस को मुद्दतें गुज़रीं
मगर अब तक मिरे दिल से पशेमानी नहीं जाती
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है ये तक़दीर की ख़ूबी कि निगाह-ए-मुश्ताक़
पर्दा बन जाए अगर पर्दा-नशीं तक पहुँचे
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उल्फ़त की थीं दलील तिरी बद-गुमानियाँ
अब बद-गुमान मैं हूँ कि तू बद-गुमाँ नहीं
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हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म ने इस क़दर मुझ को रुलाया है
कि अब राहत की सूरत मुझ से पहचानी नहीं जाती
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रंज ओ अलम का लुत्फ़ उठाने के वास्ते
राहत से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
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