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जमील मलिक के शेर

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हम से कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर तो है उसे

वो यार बा-वफ़ा सही बेवफ़ा तो है

हम तो तमाम उम्र तिरी ही अदा रहे

ये क्या हुआ कि फिर भी हमीं बेवफ़ा रहे

कैसे थे लोग जिन की ज़बानों में नूर था

अब तो तमाम झूट है सच्चाइयों में भी

दिल की क़ीमत तो मोहब्बत के सिवा कुछ भी थी

जो मिले सूरत-ए-ज़ेबा के ख़रीदार मिले

मैं तो तन्हा था मगर तुझ को भी तन्हा देखा

अपनी तस्वीर के पीछे तिरा चेहरा देखा

ख़त्म हो जाएँ जिन्हें देख के बीमारी-ए-दिल

ढूँड कर लाएँ कहाँ से वो मसीहा चेहरे

एक ज़रा सी भूल पे हम को इतना तू बदनाम कर

हम ने अपने घाव छुपा कर तेरे काज सँवारे हैं

ये क्या ज़रूर है मैं कहूँ और तू सुने

जो मेरा हाल है वो तुझे भी पता तो है

यूँ दिल में आज नूर की बारिश हुई 'जमील'

जैसे कोई चराग़ जला दे बुझा हुआ

बाग़ में जा कर देख लिया

कोई नहीं था तुझ सा फूल

कितने हाथों ने तराशे ये हसीं ताज-महल

झाँकते हैं दर-ओ-दीवार से क्या क्या चेहरे

पेड़ का दुख तो कोई पूछने वाला ही था

अपनी ही आग में जलता हुआ साया देखा

सब को फूल और कलियाँ बाँटो हम को दो सूखे पत्ते

ये कैसे तोहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है

ये मंज़र ये रूप अनोखे सब शहकार हमारे हैं

हम ने अपने ख़ून-ए-जिगर से क्या क्या नक़्श उभारे हैं

उस की ख़मोशियों में निहाँ कितना शोर था

मुझ से सिवा वो दर्द का ख़ूगर लगा मुझे

आप में गुम हैं मगर सब कि ख़बर रखते हैं

घर में बैठे हैं ज़माने पे नज़र रखते हैं

जाँ नज़्र की तो दोनों जहाँ मिल गए हमें

तय मर्ग ज़िंदगी का हर इक मरहला हुआ

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