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जोश मलीहाबादी के क़िस्से
जोश का मर्दाना, फ़ैज़ का ज़नाना
ये तो सभी जानते हैं कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आवाज़ में निस्वानियत थी और जोश मलीहाबादी की आवाज़ में खनक थी। जश्न रानी लायलपूर के मुशायरे में जोश मलीहाबादी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अलग-अलग ग्रुपों में बैठे थे। क़तील शिफ़ाई मुशायरा में शिरकत के लिए आए तो फ़ैज़ साहब की तरफ़
बेगम जोश की नाराज़गी
जोश को शराब पीने की आदत थी, लिहाज़ा शाम होते ही उनकी बेगम अंदर से पैग बना-बना कर भिजवातीं जिन्हें वो चार घंटे में ख़त्म कर देते और इस काम से फ़ारिग़ हो कर खाना खाते। एक शाम आज़ाद अंसारी भी उनके साथ थे। बेगम जोश को आज़ाद से हद दर्जा कराहत थी और उनकी मौजूदगी
फिर किसी और वक़्त मौलाना
जोश मलीहाबादी एक बार गर्मी के मौसम में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से मुलाक़ात की ग़रज़ से उनकी कोठी पर पहुंचे। वहाँ मुलाक़ातियों का एक जम-ए-ग़फ़ीर पहले से मौजूद था। काफ़ी देर तक इंतज़ार के बाद भी जब मुलाक़ात के लिए जोश साहब की बारी न आई तो उन्होंने उकता कर एक चिट
बहरे का चंदा
हफ़ीज़ जालंधरी शेख़ सर अब्दुल क़ादिर की सदारत में अंजुमन हिमायत-ए-इस्लाम के लिए चंदा जमा करने की ग़रज़ से अपनी नज़्म सुना रहे थे, मिरे शेख़ हैं शेख़ अब्दुल क़ादिर हुआ उनकी जानिब से फ़रमां सादिर नहीं चाहते हमसुख़न के नवादिर है मतलूब हमको न गिर्या न ख़ंदा सुना
शौहर की गुमराही
यूनुस सलीम साहब की अहलिया कराची गईं तो जोश साहब से मिलने के लिए तशरीफ़ ले गईं। जोश साहब ने पहले तो यूनुस साहब की ख़ैर-ओ-आफ़ियत दरियाफ़्त की और उसके बाद कहने लगे कि यूनुस आदमी तो अच्छा है लेकिन आजकल उसमें नुक़्स पैदा हो गया है। एक तो नमाज़ बहुत पढ़ने लगा
मौलाना पर संगसारी
एक मौलाना के जोश मलीहाबादी से बहुत अच्छे ता’ल्लुक़ात थे। कई रोज़ की गैरहाज़िरी के बाद मिलने आए तो जोश साहब ने वजह पूछी, “क्या बताऊं जोश साहब, पहले एक गुर्दे में पथरी थी, उसका ऑपरेशन हुआ। अब दूसरे गुर्दे में पथरी है।” “मैं समझ गया।” जोश साहब ने मुस्कुराते
रंडी वाला बाग़
जोश साहब पुल बंगश के जिस मुहल्ले में आकर रहे उसका नाम तक़्सीम-ए-वतन के बाद से नया मुहल्ला पड़ गया था। वहाँ सुकूनत इख़्तियार करने के बाद जोश साहब को मालूम हुआ कि पहले उसका नाम रंडी वाला बाग़ था। बड़ी उदासी से कहने लगे, “क्या बद मज़ाक़ लोग हैं! कितना अच्छा नाम
ऑटोग्राफ़ बुक और अस्तबल
बम्बई की एक मा’रूफ़ अदब परवर और बूढ़ी गायिका के यहाँ महफ़िल-ए-मुशायरा मुना’क़िद हो रही थी, जिसमें जोश, जिगर, हफ़ीज़ जालंधरी, मजाज़ और साग़र निज़ामी भी शरीक थे। मुशायरे के इख्तिताम पर एक दुबली-पतली सी लड़की जिसकी कमसिन आँखें बजाय ख़ुद किसी ग़ज़ल के नमनाक शे’रों
जोश का मुसल्ला और पानी से इस्तिंजा
मालिक राम पहली दफ़ा जोश मलीहाबादी साहब से मिलने गए तो जाड़ों का मौसम था। शाम के तक़रीबन छः बजे थे। इतने में क़रीब की मस्जिद से आज़ान की आवाज़ आई तो जोश साहब ने अपने बेटे सज्जाद को आवाज़ दी कि बेटे मेरा मुसल्ला लाना। मालिक राम साहब हैरान हुए कि जोश साहब
अदम ये है तो वजूद क्या है?
‘अदम ये है तो वजूद क्या है? अब्दुल हमीद ‘अदम को किसी साहब ने एक बार जोश से मिलाया। “आप ‘अदम हैं...!” ‘अदम काफ़ी तन-ओ-तोश के आदमी थे, जोश ने उनके डील-डौल को बग़ौर देखा और कहने लगे, “‘अदम ये है तो वजूद क्या होगा?”
पठान की नज़्म और सुख की दाद
एक बार बम्बई के मुशायरे में जोश मलीहाबादी अपनी तहलका मचा देने वाली नज़्म “गुल-बदनी” सुना रहे थे, बेपनाह दाद मिल रही थी। जब उन्होंने इस नज़्म का एक बहुत ही अच्छा बंद सुनाया तो कँवर महिंदर सिंह बेदी सिहर ने वालिहाना दाद दी और कहा कि “हज़रात मुलाहिज़ा हो, एक
तल्ख़-ओ-शीरीं
मनमोहन तल्ख़ ने जोश मलीहाबादी को फ़ोन किया और कहा, “मैं तल्ख़ बोल रहा हूँ।” जोश साहब ने जवाब दिया, “क्या हर्ज है अगर आप शीरीं बोलें।”
पिदरी ज़बान में ख़त
जोश ने पाकिस्तान में एक बहुत बड़े वज़ीर को उर्दू में ख़त लिखा, लेकिन उसका जवाब उन्होंने अंग्रेज़ी में इर्साल फ़रमाया। जवाब-उल-जवाब में जोश ने उन्हें लिखा, “जनाब-ए-वाला, मैंने तो आपको अपनी मादरी ज़बान में ख़त लिखा था, लेकिन आपने उसका जवाब अपनी पिदरी ज़बान
ख़्वाहिश-ए-दीदार
बम्बई में जोश साहब एक ऐसे मकान में ठहरे जिसमें ऊपर की मंज़िल पर एक अदाकारा रहती थी। मकान की कुछ ऐसी साख़्त थी कि उन्हें दीदार न हो सकता था, लिहाज़ा उन्होंने ये रुबाई लिखी, मेरे कमरे की छत पे है उस बुत का मकान जल्वे का नहीं है फिर भी कोई इमकान गोया
मुनाफ़िक़त का एतिराफ़
किसी मुशायरे में एक नौ मश्क़ शायर अपना ग़ैर मौज़ूं कलाम पढ़ रहे थे। अक्सर शोअ’रा आदाब-ए-महफ़िल को मलहूज़ रखते हुए ख़ामोश थे। लेकिन जोश मलीहाबादी पूरे जोश-ओ-ख़रोश से एक एक मिसरे पर दाद-ए-तहसीन की बारिश किए जा रहे थे। गोपीनाथ अम्न ने टोकते हुए पूछा,
दाढ़ी का कमाल
जिन दिनों जोश मलीहाबादी हैदराबाद में रिहाइश पज़ीर थे, फ़ानी बदायूनी भी मुस्तक़िलन वहीं रहने लगे थे। एक बार फ़ानी के साहबज़ादे भी हैदराबाद आगए। उन्हें ग़ालिबन हिक्मत से लगाव था और इसी वजह से उन्होंने दाढ़ी रखी थी। उ’मूमन यही होता रहा है कि बाप दाढ़ी रखते हैं