कलीम हैदर शरर के शेर
कई लोगों ने फलते फूलते पेड़ों से जाना है
मगर मैं ने तुझे सब्ज़े की उर्यानी से पहचाना
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अब इस को ज़िंदगी कहिए कि अहद-ए-बे-हिसी कहिए
घरों में लोग रोते हैं मगर रस्तों पे हँसते हैं
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यहाँ पे दश्त ओ समुंदर की बात मत करना
हमारे शहर का हर शख़्स है मकान-ज़दा
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हक़ीक़त है इसे मानें न मानें घटती बढ़ती हैं
वो झूटी हों कि सच्ची दास्तानें घटती बढ़ती हैं
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अपने दरवाज़े पे बैठा सोचता रहता हूँ मैं
मेरा घर अज्दाद की बारा-दरी का कर्ब है
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सिसकियाँ भर के 'शरर' कौन वहाँ रोता था
ख़ेमा-ए-ख़्वाब सर-ए-शाम जहाँ पर टूटा
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