कलीम उस्मानी के शेर
है ज़ेब-ए-गुलू कब से मिरे दार का फंदा
मुजरिम हूँ अगर मैं तो सज़ा क्यूँ नहीं देते
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जब किसी ने क़द ओ गेसू का फ़साना छेड़ा
बात बढ़ के रसन-ओ-दार तक आ पहुँची है
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