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ख़ावर जीलानी के शेर

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सभी किरदार थक कर सो गए हैं

मगर अब तक कहानी चल रही है

वक़्त गुज़र जाता है लेकिन दिल की रंजिश

दिल में बैठी की बैठी ही रह जाती है

इक चिंगारी आग लगा जाती है बन में और कभी

एक किरन से ज़ुल्मत को छट जाना पड़ता है

जीना तो अलग बात है मरना भी यहाँ पर

हर शख़्स की अपनी ही ज़रूरत के लिए है

यूँही बेकार मैं पड़ा ख़ुद को

कार-आमद बना रहा हूँ मैं

वो कुछ से कुछ बना डालेगा तस्लीमात के मअनी

सलीक़ा गया उस को अगर इंकार करने का

दिलों की शीशागरी कार-गह-ए-हस्ती में

हुनर के ज़ेर ज़बर से भी टूट सकती थी

सच्चाई वो जंग है जिस में बाज़ औक़ात सिपाही को

आप मुक़ाबिल अपने ही डट जाना पड़ता है

बनने वाली बात वही होती है वो जो

बनते बनते यकसर बनती रह जाती है

नहीं है कोई भी हतमी यहाँ हद-ए-मालूम

हर एक इंतिहा इक और इंतिहा तक है

सुब्ह होती है तो कुंज-ए-ख़ुश-गुमानी में कहीं

फेंक दी जाती है शब भर की सियाही बाँध कर

अपने सहरा से बंधे प्यास के मारे हुए हम

मुंतज़िर हैं कि इधर कोई कुआँ निकले

वो कि बन पा नहीं रहा मुझ से

जो कि शायद बना रहा हूँ मैं

रूह के दामन से अपनी दुनिया-दारी बाँध कर

चल रहे हैं दम-ब-दम आँखों पे पट्टी बाँध कर

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