ख़ालिद इक़बाल यासिर के शेर
रहती है साथ साथ कोई ख़ुश-गवार याद
तुझ से बिछड़ के तेरी रिफ़ाक़त गई नहीं
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लगता है ज़िंदा रहने की हसरत गई नहीं
मर के भी साँस लेने की आदत गई नहीं
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हाँ ये मुमकिन है मगर इतना ज़रूरी भी नहीं
जो कोई प्यार में हारा वही फ़नकार हुआ
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भूल जाना था जिसे सब्त है दिल पर मेरे
याद रखना था जिसे उस को भुला बैठा हूँ
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ख़ुद अपनी शक्ल देखे एक मुद्दत हो गई मुझ को
उठा लेता है पत्थर टूटे आईने नहीं देता
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ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है
ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है
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पलट के आए न आए कोई सुने न सुने
सदा का काम फ़ज़ाओं में गूँजते तक है
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यही बहुत है किसी तरह से भरम ही रह जाए पेश दुनिया
अगर मयस्सर नहीं है बादा ख़याल-ए-बादा भी कम नहीं है
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जैसी निगाह थी तिरी वैसा फ़ुसूँ हुआ
जो कुछ तिरे ख़याल में था जूँ-का-तूँ हुआ
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आबाद बस्तियाँ थीं फ़सीलों के साए में
आपस में बस्तियों को मिलाता हुआ हिसार
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बुरा भला वास्ता बहर-तौर उस से कुछ देर तो रहा है
कहीं सर-ए-राह सामना हो तो इतनी शिद्दत से मुँह न मोड़ूँ
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इन्हें दर-ए-ख़्वाब-गाह से किस लिए हटाया
मुहाफ़िज़ों की वफ़ा-शिआरी में क्या कमी थी
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