ख़ालिद मलिक साहिल के शेर
ख़्वाब देखा था मोहब्बत का मोहब्बत की क़सम
फिर इसी ख़्वाब की ताबीर में मसरूफ़ था मैं
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बस एक ख़ौफ़ था ज़िंदा तिरी जुदाई का
मिरा वो आख़िरी दुश्मन भी आज मारा गया
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जुनूँ का कोई फ़साना तो हाथ आने दो
मैं रो पड़ूँगा बहाना तो हाथ आने दो
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चमक रहे थे अंधेरे में सोच के जुगनू
मैं अपनी याद के ख़ेमे में सो नहीं पाया
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तुम मस्लहत कहो या मुनाफ़िक़ कहो मुझे
दिल में मगर ग़ुबार बहुत देर तक रहा
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हम लोग तो अख़्लाक़ भी रख आए हैं 'साहिल'
रद्दी के इसी ढेर में आदाब पड़े थे
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किसी ख़याल का कोई वजूद हो शायद
बदल रहा हूँ मैं ख़्वाबों को तजरबा कर के
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लफ़्ज़ रंगों में नहाए हुए घर में आए
तेरी आवाज़ की तस्वीर में मसरूफ़ था मैं
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बाज़ औक़ात तिरा नाम बदल जाता है
बाज़ औक़ात तिरे नक़्श भी खो जाते हैं
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जवाब जिस का नहीं कोई वो सवाल बना
मैं ख़्वाब में उसे देखूँ कोई ख़याल बना
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रौशनी की अगर अलामत है
राख उड़ती है क्यूँ शरारे पर
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मैं तमाशा हूँ तमाशाई हैं चारों जानिब
शर्म है शर्म के मारे नहीं रो सकता मैं
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मैं किस यक़ीन से लिक्खा गया हूँ मिट्टी पर
वो कौन है जो मिरे सिलसिले की ढाल बना
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ज़र्रे ज़र्रे में क़यामत का समाँ है 'साहिल'
एक ही दिल के सहारे नहीं रो सकता मैं
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गुज़र रही है जो दिल पर वही हक़ीक़त है
ग़म-ए-जहाँ का फ़साना ग़म-ए-हयात से पूछ
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इस शहर के लोगों पे भरोसा नहीं करना
ज़ंजीर कोई दर पे लगाओ कि चला मैं
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मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया
मैं कैसे दूँगा ज़माने को जो नहीं पाया
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दुनिया से दूर अपने बराबर खड़े रहे
ख़्वाबों में जागते थे मगर रात हो गई
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इस तिश्ना-लबी पर मुझे एज़ाज़ तो बख़्शो
ऐ बादा-कशो जाम उठाओ कि चला मैं
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