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KHalid Malik Sahil's Photo'

ख़ालिद मलिक साहिल

1961 | जर्मनी

ख़ालिद मलिक साहिल के शेर

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ख़्वाब देखा था मोहब्बत का मोहब्बत की क़सम

फिर इसी ख़्वाब की ताबीर में मसरूफ़ था मैं

बस एक ख़ौफ़ था ज़िंदा तिरी जुदाई का

मिरा वो आख़िरी दुश्मन भी आज मारा गया

जुनूँ का कोई फ़साना तो हाथ आने दो

मैं रो पड़ूँगा बहाना तो हाथ आने दो

चमक रहे थे अंधेरे में सोच के जुगनू

मैं अपनी याद के ख़ेमे में सो नहीं पाया

तुम मस्लहत कहो या मुनाफ़िक़ कहो मुझे

दिल में मगर ग़ुबार बहुत देर तक रहा

हम लोग तो अख़्लाक़ भी रख आए हैं 'साहिल'

रद्दी के इसी ढेर में आदाब पड़े थे

किसी ख़याल का कोई वजूद हो शायद

बदल रहा हूँ मैं ख़्वाबों को तजरबा कर के

लफ़्ज़ रंगों में नहाए हुए घर में आए

तेरी आवाज़ की तस्वीर में मसरूफ़ था मैं

बाज़ औक़ात तिरा नाम बदल जाता है

बाज़ औक़ात तिरे नक़्श भी खो जाते हैं

जवाब जिस का नहीं कोई वो सवाल बना

मैं ख़्वाब में उसे देखूँ कोई ख़याल बना

रौशनी की अगर अलामत है

राख उड़ती है क्यूँ शरारे पर

मैं तमाशा हूँ तमाशाई हैं चारों जानिब

शर्म है शर्म के मारे नहीं रो सकता मैं

मैं किस यक़ीन से लिक्खा गया हूँ मिट्टी पर

वो कौन है जो मिरे सिलसिले की ढाल बना

ज़र्रे ज़र्रे में क़यामत का समाँ है 'साहिल'

एक ही दिल के सहारे नहीं रो सकता मैं

गुज़र रही है जो दिल पर वही हक़ीक़त है

ग़म-ए-जहाँ का फ़साना ग़म-ए-हयात से पूछ

इस शहर के लोगों पे भरोसा नहीं करना

ज़ंजीर कोई दर पे लगाओ कि चला मैं

मैं अपनी आँख भी ख़्वाबों से धो नहीं पाया

मैं कैसे दूँगा ज़माने को जो नहीं पाया

दुनिया से दूर अपने बराबर खड़े रहे

ख़्वाबों में जागते थे मगर रात हो गई

इस तिश्ना-लबी पर मुझे एज़ाज़ तो बख़्शो

बादा-कशो जाम उठाओ कि चला मैं

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