ख़ान रिज़वान के शेर
ये ख़द्द-ओ-ख़ाल ये गेसू ये सूरत-ए-ज़ेबा
सभी का हुस्न है अपनी जगह मगर आँखें
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कौन गुज़रा है ये आँधियों की तरह
शम्अ-ए-राह-ए-वफ़ा को बुझाते हुए
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की है सरगोशी सर-ए-शाम मिरे दिल ने फिर
इस लिए हम ने लपेटा नहीं बिस्तर अपना
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तर्क-ए-तअल्लुक़ात में महजूर तो हुए
लेकिन ख़याल-ओ-ख़्वाब में वो रू-ब-रू रहे
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टैग : ख़्वाब
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हम तो अपने क़द के बराबर भी न हुए
लोग न जाने कैसे ख़ुदा हो जाते हैं
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उम्र-ए-रफ़्ता जा किसी दीवार के साए में बैठ
बे-सबब की ख़्वाहिशें हैं और घर की जुस्तुजू
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टैग : जुस्तुजू
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वो चाहता है कि हम उस की दस्तरस में रहें
किसी का हो के रहें ये उसे गवारा नहीं
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ऐ ख़ुदा कर दे शब को और सियाह
है ग़रीबों का ये लिबास अभी
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