ख़ुर्शीद रब्बानी
ग़ज़ल 17
अशआर 18
उतर के शाख़ से इक एक ज़र्द पत्ते ने
नई रुतों के लिए रास्ता बनाया था
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वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
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ये कौन आग लगाने पे है यहाँ मामूर
ये कौन शहर को मक़्तल बनाने वाला है
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किसी ख़याल किसी ख़्वाब के लिए 'ख़ुर्शीद'
दिया दरीचे में रक्खा था दिल जलाया था
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देख कर भी न देखना उस का
ये अदा तो बुतों में होती है
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