कुमार पाशी के शेर
कुछ ग़ज़लें उन ज़ुल्फ़ों पर हैं कुछ ग़ज़लें उन आँखों पर
जाने वाले दोस्त की अब इक यही निशानी बाक़ी है
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ओढ़ लिया है मैं ने लिबादा शीशे का
अब मुझ को किसी पत्थर से टकराने दो
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तेरी याद का हर मंज़र पस-मंज़र लिखता रहता हूँ
दिल को वरक़ बनाता हूँ और शब भर लिखता रहता हूँ
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कोई तो ढूँड के मुझ को कहीं से ले आए
कि ख़ुद को देखा नहीं है बहुत ज़मानों से
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कभी दिखा दे वो मंज़र जो मैं ने देखे नहीं
कभी तो नींद में ऐ ख़्वाब के फ़रिश्ते आ
क्यूँ लोगों से मेहर-ओ-वफ़ा की आस लगाए बैठे हो
झूट के इस मकरूह नगर में लोगों का किरदार कहाँ
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आया बसंत फूल भी शो'लों में ढल गए
मैं चूमने लगा तो मिरे होंट जल गए
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टैग : बसंत
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दश्त-ए-जुनूँ की ख़ाक उड़ाने वालों की हिम्मत देखो
टूट चुके हैं अंदर से लेकिन मन-मानी बाक़ी है
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मिरी दहलीज़ पर चुपके से 'पाशी'
ये किस ने रख दी मेरी लाश ला कर
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हुई हैं दैर ओ हरम में ये साज़िशें कैसी
धुआँ सा उठने लगा शहर के मकानों से
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अपने गिर्द-ओ-पेश का भी कुछ पता रख
दिल की दुनिया तो मगर सब से जुदा रख
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हैं सारे इंकिशाफ़ अपने हैं सारे मुम्किनात अपने
हम इस दुनिया का सारा इल्म ले जाएँगे साथ अपने
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नई नई आवाज़ें उभरीं 'पाशी' और फिर डूब गईं
शहर-ए-सुख़न में लेकिन इक आवाज़ पुरानी बाक़ी है
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