ज़रूर अमन का पैग़ाम ले गया था कहीं
परिंदा लौटा लिए पर लहू में डूबे हुए
पैग़ाम तो उन का आया है तुम शहर में 'तिश्ना' आ जाओ
सहरा है पसंदीदा हम को हम शहर में जा कर क्या करते
ऐ रंगून में चलती हवा मेरा संदेसा लेती जा
तेरा तो उन की गलियों में आना-जाना होगा ही
कब वो पैग़ाम-रसा हो कि मुझे सब्र नहीं
काकुल-ए-ख़म के लिए शे'र रक़म करता हूँ