सब्र पर शेर
शायरी में सब्र आशिक़
का सब्र है जो तवील बहर को विसाल की एक मौहूम सी उम्मीद पर गुज़ार रहा होता है और माशूक़ उस के सब्र का बराबर इम्तिहान लेता रहता है। ये अशआर आशिक़ और माशूक़ के किर्दार की दिल-चस्प जेहतों का इज़हारिया हैं।
वहाँ से है मिरी हिम्मत की इब्तिदा वल्लाह
जो इंतिहा है तिरे सब्र आज़माने की
सब्र आ जाए इस की क्या उम्मीद
मैं वही, दिल वही है तू है वही
आगही कर्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास
मेरे ही सीने में उतरे हैं ये ख़ंजर सारे
बहुत कम बोलना अब कर दिया है
कई मौक़ों पे ग़ुस्सा भी पिया है
सब्र ऐ दिल कि ये हालत नहीं देखी जाती
ठहर ऐ दर्द कि अब ज़ब्त का यारा न रहा
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
दरिया पानी पानी है
रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
अश्क पीने के लिए हैं कि बहाने के लिए
हर-चंद तुझे सब्र नहीं दर्द व-लेकिन
इतना भी न मिलियो कि वो बदनाम बहुत हो
चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता