कहीं सूरज नज़र आता नहीं है
हुकूमत शहर में अब धुँद की है
क़हर ढाएगी असीरों की तड़प
और भी उलझेंगे हल्क़े दाम के
हम परिंदों से हुनर छीनेगा कौन
जल गया इक घर तो सौ घर बन गए
आप मज़लूम के अश्कों से न खिलवाड़ करें
ये वो दरिया हैं जो शहरों को निगल सकते हैं
गुज़रा था अपने शहर से रावन फ़साद का
ज़ालिम मोहब्बतों की कथाएँ भी ले गया
उन्ही पे हो कभी नाज़िल अज़ाब आग अजल
वही नगर कभी ठहरें पयम्बरों वाले
किया इश्क़-ए-मजाज़ी ने हक़ीक़त आश्ना मुझ को
बुतों ने ज़ुल्म वो ढाया कि याद आया ख़ुदा मुझ को
सुनी न एक भी ज़ालिम ने आरज़ू दिल की
ये किस के सामने हम अर्ज़-ए-हाल कर बैठे
मर जाएँगे जब हम तो बहुत याद करेगी
जी भर के सता ले शब-ए-हिज्राँ कोई दिन और
ज़ुल्म से गर ज़ब्ह भी कर दो मुझे परवा नहीं
लुत्फ़ से डरता हूँ ये मेरी क़ज़ा हो जाएगा
ज़ुल्म सह के भी मैं ने होंट सी लिए 'ग़ाज़ी'
एक ज़र्फ़ उन का है एक ज़र्फ़ मेरा है
डर और ज़ुल्म का यारो कोई अंत नहीं
ख़ुद को ढूँड रहे हैं लोग अब रावन में
ख़ुद-फ़रेबी में मुब्तला रख कर
ज़ुल्म की तुम ने इंतिहा की है
मैं मुल्क-बदर सब्र भी कर सकती थी लेकिन
ये देखना था ज़ुल्म की सरहद है कहाँ तक
उसी को सौंप दी हम ने हिफ़ाज़त अपने ख़ेमों की
वो आदम-ख़ोर जो लाशों का ब्योपारी रहा बरसों