aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1768 - 1824 | हैदराबाद, भारत
गुल के होने की तवक़्क़ो पे जिए बैठी है
हर कली जान को मुट्ठी में लिए बैठी है
कभी सय्याद का खटका है कभी ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ
बुलबुल अब जान हथेली पे लिए बैठी है
गर मिरे दिल को चुराया नहीं तू ने ज़ालिम
खोल दे बंद हथेली को दिखा हाथों को
तीर ओ तलवार से बढ़ कर है तिरी तिरछी निगह
सैकड़ों आशिक़ों का ख़ून किए बैठी है
ब-जुज़ हक़ के नहीं है ग़ैर से हरगिज़ तवक़्क़ो कुछ
मगर दुनिया के लोगों में मुझे है प्यार से मतलब
Deewan-e-Mah Laqabai Chanda
Urdu Ka Classicy Adab
Gulzaar-e-Mah Liqaa
1906
Gulzar-e-Mah Laqa
Gulzar-e-Mahlaqa
हयात-ए-माह लक़ा चंदा
Mah Laqa
Halat-e-Zindagi Ma Deewan
1998
mah Laqa Bai Chanda Ki Zindagi Aur Uska Kalam
हम जो शब को ना-गहाँ उस शोख़ के पाले पड़े दिल तो जाता ही रहा अब जान के लाले पड़े
गरचे गुल की सेज हो तिस पर भी उड़ जाती है नींद सर रखूँ क़दमों पे जब तेरे मुझे आती है नींद
गर मिरे दिल को चुराया नहीं तू ने ज़ालिम खोल दे बंद हथेली को दिखा हाथों को
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