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महताब आलम

1972 | भोपाल, भारत

महताब आलम के शेर

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नाक़िदो तुम तो मिरे फ़न की परख रहने दो

अपने सोने को मैं पीतल नहीं होने दूँगा

वतन को फूँक रहे हैं बहुत से अहल-ए-वतन

चराग़ घर के हैं सरगर्म घर जलाने में

ज़ेहन ऐसे भी बन जाएँ निसाबों वाले

गुफ़्तुगू में भी हूँ अल्फ़ाज़ किताबों वाले

आँसुओं के जहाँ में रहते हैं

हम इसी कहकशाँ में रहते हैं

ज़मीं क्यूँ मुझ से टकराती उफ़ुक़ पर

मिरा घर था मिरे ज़ाती उफ़ुक़ पर

इक सफ़र फिर मरी तक़दीर हुआ जाता है

रास्ता पाँव की ज़ंजीर हुआ जाता है

दिल को फिर दर्द से आबाद किया है मैं ने

मुद्दतों बा'द तुझे याद किया है मैं ने

शर से है ख़ैर का इम्काँ पैदा

नूर-ओ-ज़ुल्मत हुए जुड़वाँ पैदा

बने हैं कितने चेहरे चाँद सूरज

ग़ज़ल के इसतिआराती उफ़ुक़ पर

बंद कमरे में ज़ेहन क्या बदले

घर से निकलो तो कुछ फ़ज़ा बदले

दिल भी तोड़ा तो सलीक़े से तोड़ा तुम ने

बेवफ़ाई के भी आदाब हुआ करते हैं

तुम ज़माने के हो हमारे सिवा

हम किसी के नहीं तुम्हारे हैं

ये सन कर मेरी नींदें उड़ गई हैं

कोई मेरा भी सपना देखता है

उस को आवाज़ दो मोहब्बत से

उस के सब नाम प्यारे प्यारे हैं

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