महताब ज़फ़र के शेर
ज़बाँ ज़बाँ पे शोर था कि रात ख़त्म हो गई
यहाँ सहर की आस में हयात ख़त्म हो गई
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एक रस्म-ए-सरफ़रोशी थी सो रुख़्सत हो गई
यूँ तो दीवाने हमारे ब'अद भी आए बहुत
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जिन की हसरत में दिल-ए-रुस्वा ने ग़म खाए बहुत
संग हम पर इन दरीचों ने ही बरसाए बहुत
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