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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Manish Shukla's Photo'

मनीश शुक्ला

1971 | लखनऊ, भारत

मनीश शुक्ला के शेर

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बात करने का हसीं तौर-तरीक़ा सीखा

हम ने उर्दू के बहाने से सलीक़ा सीखा

मिरी आवारगी ही मेरे होने की अलामत है

मुझे फिर इस सफ़र के ब'अद भी कोई सफ़र देना

किसी के इश्क़ में बर्बाद होना

हमें आया नहीं फ़रहाद होना

मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया

मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था

तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है

मिरा अंदाज़ हँसने का कभी तेरे ही जैसा था

दिल का सारा दर्द भरा तस्वीरों में

एक मुसव्विर नक़्श हुआ तस्वीरों में

ज़िंदगी देख ले नज़र भर के

हम हैं शामिल तिरे ख़राबों में

मिरे दिल में कोई मासूम बच्चा

किसी से आज तक रूठा हुआ है

हम चराग़ों की मदद करते रहे

और उधर सूरज बुझा डाला गया

सुना है रात पूरे चाँद की है

समुंदर शाम से बहका हुआ है

लुत्फ़ तो देती है ये आवारगी

फिर भी हम को लौट जाना चाहिए

वक़्त कहाँ मुट्ठी में आने वाला था

लेकिन हम ने बाँध लिया तस्वीरों में

सफ़र में अब मुसलसल ज़लज़ले हैं

वो रुक जाएँ जिन्हें गिरने का डर है

उसी ने राह दिखलाई जहाँ को

जो अपनी राह पर तन्हा गया था

कितने लोगों से मिलना-जुलना था

ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ

बताऊँ क्या तुम्हें हासिल सफ़र का

अधूरी दास्ताँ है और मैं हूँ

गुफ़्तुगू का कोई तो मिलता सिरा

फिर उसे नाराज़ कर के देखते

ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में

मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं

सीधे अपनी बात पे

ये लहजा दरबारी छोड़

हम ने तो पास-ए-अदब में बंदा-परवर कह दिया

और वो समझे कि सच में बंदा-परवर हो गए

अब तक जिस्म सुलगता है

कैसी थी बरसात पूछ

अब अपना चेहरा बेगाना लगता है

हम को थी संजीदा रहने की आदत

काग़ज़ों पर मुफ़्लिसी के मोर्चे सर हो गए

और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए

उड़ानों ने किया था इस क़दर मायूस उन को

थके-हारे परिंदे जाल में ख़ुद फँस रहे थे

कोई ता'मीर की सूरत तो निकले

हमें मंज़ूर है बुनियाद होना

आख़िर हम को बे-ज़ारी तक ले आई

हर शय पर गिरवीदा रहने की आदत

अव्वल आख़िर ही जब नहीं बस में

क्या करें दरमियान की बातें

कितनी उजलत में मिटा डाला गया

आग में सब कुछ जला डाला गया

चंद लकीरें तो इस दर्जा गहरी थीं

देखने वाला डूब गया तस्वीरों में

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