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मंज़र भोपाली

1959 | भोपाल, भारत

मंज़र भोपाली

ग़ज़ल 15

नज़्म 1

 

अशआर 19

आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई

ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई

बाप बोझ ढोता था क्या जहेज़ दे पाता

इस लिए वो शहज़ादी आज तक कुँवारी है

अब समझ लेते हैं मीठे लफ़्ज़ की कड़वाहटें

हो गया है ज़िंदगी का तजरबा थोड़ा बहुत

आप ही की है अदालत आप ही मुंसिफ़ भी हैं

ये तो कहिए आप के ऐब-ओ-हुनर देखेगा कौन

सफ़र के बीच ये कैसा बदल गया मौसम

कि फिर किसी ने किसी की तरफ़ नहीं देखा

पुस्तकें 5

 

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