मंज़ूर आरिफ़
ग़ज़ल 19
नज़्म 1
अशआर 4
ऐसा दिल-कश था कि थी मौत भी मंज़ूर हमें
हम ने जिस जुर्म की काटी है सज़ा ज़िंदाँ में
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वो क्या गया कि हर इक शख़्स रह गया तन्हा
उसी के दम से थीं बाहम रिफाक़तें सारी
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हर शय लम्हे की मेहमाँ है क्या गुल क्या ख़ुशबू
क्या मय क्या नश्शा-ए-आईना क्या आईना-रू
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