मरयम ग़ज़ाला
ग़ज़ल 4
नज़्म 2
अशआर 6
जब भी मैं ने खोल कर देखी है यादों की किताब
यूँही सफ़्हों पर तड़पते मिल गए कुछ वाक़िआ'त
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झील के ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंक कर
दायरा उठती हुई लहरों का हम देखा किए
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- ग़ज़ल देखिए
दर-ओ-दीवार पे परछाइयाँ आती थीं नज़र
बात करने को भी तरसी हूँ सहर होने तक
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हम तो समझे थे हमें पहचानता कोई नहीं
अपनी बर्बादी तो घर घर की कहानी हो गई
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हर क़दम को सोच कर रखिएगा अब
हादिसा है राह में चलता हुआ
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