मसूदा हयात के शेर
किस से शिकवा करें वीरानी-ए-हस्ती का 'हयात'
हम ने ख़ुद अपनी तमन्नाओं को जीने न दिया
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हज़ार शौक़ नुमायाँ थे जिस नज़र से कभी
वही निगाह बड़ी अजनबी सी लगती है
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ख़ुश्बू सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
शीशा कहीं टकराए तो लगता है कि तुम हो
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घर से जो शख़्स भी निकले वो सँभल कर निकले
जाने किस मोड़ पे किस हाथ में ख़ंजर निकले
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तमाम उम्र भटकते रहे जो राहों में
दिखा रहे हैं वही आज रास्ता मुझ को
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हज़ार दर्द समेटे हुए हूँ इक दिल में
बिखर गई जो मिरी दास्ताँ तो क्या होगा
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एक ख़ुश्बू सी उभरती है नफ़स से मेरे
हो न हो आज कोई आन बसा है मुझ में
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ये क्या कि आज कोई नाम तक नहीं लेता
वो दिन भी थे कि हर इक लब पे बात अपनी थी
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तुम्हारे मिलने की हर आस आज टूट गई
तुम्हीं बताओ कि अब किस तरह जिया जाए
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तुम हमें हर्फ़-ए-ग़लत कह के मिटा भी न सके
अब भी हर लब पे सर-ए-बज़्म है चर्चा अपना
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अगरचे कहने को कल काएनात अपनी थी
हक़ीक़तन कहाँ अपनी भी ज़ात अपनी थी
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क्या ग़रज़ हम को वहाँ अब कोई भी आबाद हो
हम तो उस बस्ती से घर अपना उठा कर ले गए
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