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मसूदा हयात

1935 | दिल्ली, भारत

मसूदा हयात के शेर

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किस से शिकवा करें वीरानी-ए-हस्ती का 'हयात'

हम ने ख़ुद अपनी तमन्नाओं को जीने दिया

हज़ार शौक़ नुमायाँ थे जिस नज़र से कभी

वही निगाह बड़ी अजनबी सी लगती है

ख़ुश्बू सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो

शीशा कहीं टकराए तो लगता है कि तुम हो

एक ख़ुश्बू सी उभरती है नफ़स से मेरे

हो हो आज कोई आन बसा है मुझ में

तमाम उम्र भटकते रहे जो राहों में

दिखा रहे हैं वही आज रास्ता मुझ को

घर से जो शख़्स भी निकले वो सँभल कर निकले

जाने किस मोड़ पे किस हाथ में ख़ंजर निकले

हज़ार दर्द समेटे हुए हूँ इक दिल में

बिखर गई जो मिरी दास्ताँ तो क्या होगा

तुम हमें हर्फ़-ए-ग़लत कह के मिटा भी सके

अब भी हर लब पे सर-ए-बज़्म है चर्चा अपना

ये क्या कि आज कोई नाम तक नहीं लेता

वो दिन भी थे कि हर इक लब पे बात अपनी थी

तुम्हारे मिलने की हर आस आज टूट गई

तुम्हीं बताओ कि अब किस तरह जिया जाए

अगरचे कहने को कल काएनात अपनी थी

हक़ीक़तन कहाँ अपनी भी ज़ात अपनी थी

क्या ग़रज़ हम को वहाँ अब कोई भी आबाद हो

हम तो उस बस्ती से घर अपना उठा कर ले गए

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