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नई नस्ल के उभरते हुए शाइरों में शामिल

नई नस्ल के उभरते हुए शाइरों में शामिल

मिराश

ग़ज़ल 11

अशआर 18

गर्द आइनों की चारों तरफ़ है जमी हुई

'आलम 'अजीब शीशा-गरी की दुकान है

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जो मेरे बनने से पहले इक इंतिज़ार बना

उस इंतिज़ार के अंदर मैं बार बार बना

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इसी कफ़न से ढक जाए सारा शहर कहीं

मिरा जनाज़ा परिंदे उठाए फिरते हैं

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ख़ुतूत आग में जलते हैं और सीखों पर

किसी का दिल तो जिगर है किसी परिंदे का

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हम दिल ही दिल में उस पे उठा लेते कुछ सवाल

लेकिन ग़ुयूब में भी वो हाज़िर-जवाब है

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