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मिर्ज़ा अली लुत्फ़

- 1813

मिर्ज़ा अली लुत्फ़

ग़ज़ल 10

अशआर 15

यही तो कुफ़्र है यारान-ए-बे-ख़ुदी के हुज़ूर

जो कुफ़्र-ओ-दीं का मिरे यार इम्तियाज़ रहा

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बैठ कर मस्जिद में रिंदों से इतना बिगड़ए

शैख़-जी आते हो मयख़ाने के भी अक्सर तरफ़

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पाकी-ए-दामान-ए-गुल की खा बुलबुल क़सम

रात भर सरशार-ए-कैफ़िय्यत मैं शबनम से रहा

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क्या सबब बतलाएँ हँसते हँसते बाहम रुक गए

ख़ुद-बख़ुद कुछ वो खींचे ईधर उधर हम रुक गए

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देर तक ज़ब्त-ए-सुख़न कल उस में और हम में रहा

बोल उठे घबरा के जब आख़िर के तईं दम रुक गए

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