मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल 34
नज़्म 4
अशआर 28
नैरंगी-ए-सियासत-ए-दौराँ तो देखिए
मंज़िल उन्हें मिली जो शरीक-ए-सफ़र न थे
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ग़लत थे वादे मगर मैं यक़ीन रखता था
वो शख़्स लहजा बहुत दिल-नशीन रखता था
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ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
ज़िंदगी को फ़क़त इम्तिहाँ मत समझ
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जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
आने वाला अभी नहीं आया
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जो मिले थे हमें किताबों में
जाने वो किस नगर में रहते हैं
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