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मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता

- 1898

मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता के शेर

188
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अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने

दो-ज़ानू है मिरी तब-ए-रसा तरकीब-ए-उर्दू से

शरमाओ आँखें मिला कर तो देखो

मुलाक़ात है हम से तुम से कभी की

देखो निगाह-ए-शौक़ से मेरी तरफ़ मुझे

ये मुद्दआ' है और कोई मुद्दआ' नहीं

मिरी जानिब को करवट ले के गर मुझ से लिपट जाओ

अभी देने लगे मिरी तरह तुम को दुआ करवट

मुझ को रोते देख कर पास आए वो तफ़्हीम को

क्यूँ दिल से दूँ दुआएँ अपने ग़ैन मीम को

जो हुस्न-ओ-इश्क़ का हम-वज़्न इम्तिहाँ ठहरा

वो बे-दहन नज़र आया में बे-ज़बाँ ठहरा

दिल है निसार मर्दुमक-ए-चश्म-ए-दोस्त पर

बीमार को है मर्दुम-ए-बीमार से ग़रज़

ब-शक्ल-ए-नाख़ुन-ए-अंगुश्त सर कटाने से

हयात मिलती है जब इंतिक़ाल होता है

मैं वो शैदा-ए-गेसू हूँ कि अक्सर मौसम-ए-गुल में

मिरा पा-ए-नज़र पड़ता है ज़ंजीर-ए-गुलिस्ताँ पर

हट कर दुख़्त-ए-रज़ बेताबियाँ बढ़ जाएँगी

गिर पड़ेगी पाँव पर दस्तार-ए-मीना देखना

वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त

क्यूँ मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स

रोता हूँ मैं तसव्वुर-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियाह में

पानी बरस रहा है जमे हैं घटा के रंग

साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार

मुँह नज़र आता नहीं आईना-ए-तस्वीर में

सरिश्क-ए-चश्म दिखाते हैं गर्मियाँ अपनी

कमी पे जब अरक़-ए-इंफ़िआ'ल होता है

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