मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता के शेर
अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने
दो-ज़ानू है मिरी तब-ए-रसा तरकीब-ए-उर्दू से
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टैग : उर्दू
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न शरमाओ आँखें मिला कर तो देखो
मुलाक़ात है हम से तुम से कभी की
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देखो निगाह-ए-शौक़ से मेरी तरफ़ मुझे
ये मुद्दआ' है और कोई मुद्दआ' नहीं
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मिरी जानिब को करवट ले के गर मुझ से लिपट जाओ
अभी देने लगे मिरी तरह तुम को दुआ करवट
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मुझ को रोते देख कर पास आए वो तफ़्हीम को
क्यूँ न दिल से दूँ दुआएँ अपने ग़ैन ओ मीम को
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जो हुस्न-ओ-इश्क़ का हम-वज़्न इम्तिहाँ ठहरा
वो बे-दहन नज़र आया में बे-ज़बाँ ठहरा
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दिल है निसार मर्दुमक-ए-चश्म-ए-दोस्त पर
बीमार को है मर्दुम-ए-बीमार से ग़रज़
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ब-शक्ल-ए-नाख़ुन-ए-अंगुश्त सर कटाने से
हयात मिलती है जब इंतिक़ाल होता है
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मैं वो शैदा-ए-गेसू हूँ कि अक्सर मौसम-ए-गुल में
मिरा पा-ए-नज़र पड़ता है ज़ंजीर-ए-गुलिस्ताँ पर
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हट न कर ऐ दुख़्त-ए-रज़ बेताबियाँ बढ़ जाएँगी
गिर पड़ेगी पाँव पर दस्तार-ए-मीना देखना
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वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स
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रोता हूँ मैं तसव्वुर-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियाह में
पानी बरस रहा है जमे हैं घटा के रंग
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साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार
मुँह नज़र आता नहीं आईना-ए-तस्वीर में
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सरिश्क-ए-चश्म दिखाते हैं गर्मियाँ अपनी
कमी पे जब अरक़-ए-इंफ़िआ'ल होता है
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